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एस धम्मो सनंतनो
न, जब तक हम तैरना समझ न लें। अब तैरने को समझकर कोई पानी में उतरेगा तो कभी उतर ही न पाएगा। तैरना तो तैरकर ही समझा जाता है। इसलिए पहली बार तो बिना तैरना जाने ही पानी में उतरना जरूरी है। खतरा है। पर जो खतरा मोल लेते हैं वे ही समझ के मोतियों को निकाल लाते हैं। तुम बिना खतरा लिए समझने की कोशिश कर रहे हो। तुम चाहते तो सब हो कि समझ में आ जाए, हाथ न जलें। तुम दूर खड़े रहो; समझ की संपदा तुम्हारे पास आ जाए, तुम्हें कदम न उठाना पड़े। ___ तुम शब्दों-शब्दों से अपने को भर लेना चाहते हो-वहीं चूक हो रही है। इसलिए तुम प्रश्न पूछने में डरते भी हो। क्योंकि प्रश्न पूछने का अर्थ ही होता है : उत्तर की खोज में जाना होगा। उत्तर कोई मुफ्त नहीं मिलते हैं; मिलते होते, सभी को मिल गए होते। उत्तर ऐसे ही कहीं किताबों में बंद नहीं रखे हैं कि तुमने खोले और पा लिए। उत्तर तो जीवन की कशमकश में, जीवन के संघर्ष में उत्पन्न होते हैं। उत्तर कोई रेडीमेड नहीं हैं कि तुम गए और प्राप्त कर लिए। कोई दूसरा तो तुम्हें दे ही नहीं सकता-तुम्हीं खोजोगे। दूसरे से इतना ही हो जाए कि तुम्हारे भीतर यह खयाल आ जाए कि बिना खोजे न मिलेगा-तो काफी। दूसरे से इतनी प्यास पैदा हो जाए कि खोजना पड़ेगा, अपने को दांव पर लगाना पड़ेगा तो बस...।
बुद्ध पुरुषों से प्यास मिलती है। बुद्ध पुरुषों से उत्तर नहीं मिलते, प्रश्न करने की क्षमता मिलती है। बुद्ध पुरुषों से प्रश्नों के हल नहीं होते, प्रश्नों को हल करने के लिए जीवन को दांव पर लगाने का अभियान मिलता है।
इतनी बातभर तुम्हारी समझ में आ जाए कि समझने से कुछ न होगा, तो समझ का काम पूरा हुआ। अन्यथा जब पूछने को सोचोगे तो कुछ पूछने जैसा खयाल में न आएगा, पूछने को क्या है ? बुद्धि कहेगी, सब ठीक है। सब ठीक से काम मत चलाना। सब ठीक भी कुछ ठीक हुआ? सब ठीक तो बड़े बुझे मन की दशा है। कुछ भी ठीक नहीं है। सब ठीक तो तुम कहते हो तभी, जब कुछ भी ठीक नहीं होता और उसे तुम देखना भी नहीं चाहते, लीप-पोत लेते हो, ढांक लेते हो।
जब कोई तुमसे पूछता है, कैसे हो? कहते हो, सब ठीक है। कभी गौर किया, इस सब ठीक के नीचे कितना गैर-ठीक दबा है? औपचारिक है। इसलिए जब तुम पूछने को उठोगे, पाओगे, पूछने को कुछ मालूम नहीं होता, सब ठीक है। लेकिन कुछ भी ठीक नहीं है। और हजार-हजार प्रश्न तुम्हारे भीतर पल रहे हैं। स्वाभाविक है कि प्रश्न पलें; प्रश्नों के बिना कौन जीवन के सागर में उतरा! स्वाभाविक है कि जिज्ञासा तुम्हारे भीतर घर बनाए, जिज्ञासा की पीड़ा जन्मे, जिज्ञासा तुम्हें विक्षिप्त बना दे कि जब तक तुम सत्य को पा न लो, संतोष न करो।
फिर से तुमसे कहूं : पूछने में तुम डरते हो, क्योंकि चलना पड़ेगा। इसे तुम भी भलीभांति जानते हो। लेकिन तुम गजब के होशियार हो अपने को धोखा देने में! इसलिए पूछते भी नहीं, प्रश्न भी भीतर खड़े हैं, मिटते भी नहीं। मिटेंगे कैसे? कौन
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