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एस धम्मो सनंतनो
हृदय नग्न तो सात पटों के भी आवरण वृथा हैं वसन व्यर्थ यदि भलीभांति आवृत भीतर का मन है
कितने तुम अपने को ढांको, सात वस्त्रों में ढांक लो, और अगर भीतर नंगापन है तो रहेगा।
वसन व्यर्थ यदि भलीभांति आवृत भीतर का मन है
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फिर तुम नग्न भी खड़े हो सकते हो – अगर भीतर का नंगापन ही न रहा – तो भी तुम नग्न नहीं हो।
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मुझे ऐसा कहने दो : महावीर नग्न खड़े होकर भी नग्न नहीं हैं, और तुम कितने ही वस्त्रों में अपने को ढांक लो, नग्न ही रहोगे ।
'जो महीने-महीने सौ वर्ष तक हजारों रुपयों से यज्ञ करे और यदि परिशुद्ध मन वाले पुरुष को मुहूर्लभर भी पूज ले, तो सौ वर्ष के हवन से वह मुहूर्तभर की पूजा श्रेष्ठ है ।'
'जो महीने - महीने सौ वर्ष तक हजारों रुपयों से यज्ञ करे...।'
बुद्ध यज्ञ की सम्यक दिशा की तरफ इशारा कर रहे हैं। यज्ञ बुद्ध के समय में बड़ा प्रचलित था। अग्नि को जलाओ, आहुतियां डालो, घी जलाओ, अन्न फेंको; न मालूम कितने तरह के यज्ञ प्रचलित थे। हिंसक यज्ञ प्रचलित थे- अश्वमेध करो, गोमेध करो, नरमेध भी यज्ञ होते थे, जिनमें आदमियों को भी चढ़ाओ । भयंकर हिंसा यज्ञ के नाम से चलती थी।
बुद्ध की क्रांतियों में से एक क्रांति यह भी थी कि उन्होंने कहा, अगर यज्ञ ही करना है तो अपने को चढ़ाओ। और अपने को ही चढ़ाना है तो बाहर की अग्नि में चढ़ाने से क्या होगा ? खोजो सदगुरु की अग्नि । कहीं कोई पावन जहां अंतर्शिखा जलती हो, वहां झुको, वहां चढ़ा दो अपने को, वहां जलो जाकर। अगर जलना है तो परवाने बनो । खोजो कोई शमा ।
'जो महीने-महीने सौ वर्ष तक हजारों रुपयों से यज्ञ करे और यदि परिशुद्ध मन वाले पुरुष को मुहूर्तभर भी पूज ले, तो सौ वर्ष के हवन से वह मुहूर्तभर की पूजा
श्रेष्ठ है ।'
एक क्षणभर को! मुहूर्त तो क्षण से भी छोटा है— दो क्षणों के बीच में जो खाली जगह है, उसका नाम मुहूर्त - जरा सा है, बड़ा संकीर्ण है। लेकिन मुहूर्त यानी वर्तमान । एक क्षण गया, वह अतीत का हो गया। जो अभी आ रहा है, वह आया नहीं, भविष्य का है। दोनों के बीच में जो है, वही मुहूर्त ।
वर्तमान में ही सत्संग हो सकता है सदगुरु से । अतीत के गुरु काम न आएंगे, भविष्य के गुरु काम न आएंगे, जो अभी है, जो यहां है, जो है, वही काम आ सकता है | मुहूर्तभर को भी उसको पूज ले तो सैकड़ों वर्षों की पूजा से श्रेष्ठ है। क्योंकि उस पूजा में तुम झुके, उस पूजा में तुम जले, उस पूजा में तुम गए ।
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