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शब्द : शून्य के पंछी इसको हम कहें : आत्ममेध यज्ञ। हो चुके थे बहुत नरमेध, अश्वमेध, गोमेध; बुद्ध और महावीर ने आत्ममेध-अपने को मिटा देने का...।
मिट ही जाओगे। तुम मिटोगे तो ही पूजा हो पाएगी। अगर तुम बने रहे तो पूजा न हो पाएगी। किसी बुद्ध पुरुष के चरण में झुकने का अर्थ ही यह है कि तुम बिलकुल झुके, तुम गए। एक मुहूर्तभर को भी अगर तुम न हो गए, तो पूजा हो गई।
निचले हर शिखर पर देवल
ऊपर निराकार तम केवल बाकी सब मंदिर तो नीची-नीची चोटियों पर हैं। कितनी ही ऊंची मालूम पड़ती हों चोटियां-बद्री हो कि केदार–लेकिन सब देवल नीची-नीची चोटियों पर हैं।
निचले हर शिखर पर देवल
ऊपर निराकार तुम केवल और जब कभी तुम किसी सत्पुरुष के पास आ जाओगे तो तुम आंख ऊपर उठाते जाओगे, उठाते जाओगे, लेकिन ओर-छोर न पाओगे।
ऊपर निराकार तुम केवल ऐसे निराकार आकाश के नीचे झुक जाने का नाम ः आत्ममेध। .ऐसा मुहूर्तभर को हो जाए, बस एक बार हो जाए, तो तुम फिर लौट न सकोगे। क्योंकि जिसने उस झुकने का आनंद जान लिया, वह फिर उठेगा नहीं।
नहीं कि शरीर न उठेगा; शरीर तो उठेगा, चलेगा, काम करेगा, लेकिन भीतर कुछ झुका ही रहेगा-झुका ही रहेगा; फिर भीतर कोई कभी न उठेगा।
पूजा का एक क्षण, एक मुहूर्त शाश्वत हो जाता है। एस धम्मो सनंतनो।
आज इतना ही।
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