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________________ एस धम्मो सनंतनो दो पहलू हैं। आत्म-जागरण न तो त्याग है, न भोग है; क्योंकि आत्म-जागरण बाहर से मुक्त होने की कला है। आत्म-जागरण स्व में ठहरने की, स्वस्थ होने की कला है। सत्पुरुष, बुद्ध उसी को कहते हैं, जिसने अपने होने में थिरता पा ली, जिसकी लौ अकंप जलने लगी। 'सुख मिले या दुख, पंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।' अभी तो दुख मिलेगा तो तुम कैसे प्रगट करने से बचोगे अपनी प्रतिक्रिया? दुख मिलेगा, तुम दुखी हो जाओगे; चाहे तुम छिपाने की कोशिश भी करो। यह भी हो सकता है कि दूसरे को तुम पता भी न चलने दो, पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; तुम दुखी हो जाओगे। सुख मिलेगा, तुम सुखी हो जाओगे। अभी ऐसा होता है, जो भी घटना घटती है, उसके साथ तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। तुम दूर नहीं रह पाते। दुख आता है तो तुम दुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते हो, मैं दुखी। कहो न कहो, भीतर तुम जानने लगते हो, मैं दुखी। सुख आता है, तुम सुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते हो, मैं सुखी। सुख आता है, तुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता है, तुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता है, तुम ऐसे चलने लगते हो, जैसे मुर्दा। सुख आता है, तुम ऐसे नाचने लगते हो, जैसे जीवंत। अभी सुख और दुख तुम्हें पूरा का पूरा घेर लेते हैं। अभी तुम्हारा होना सुख-दुख के पार नहीं है, सुख-दुख के भीतर है। सत्पुरुष वही है, जिसके पास अपना होना है, प्रामाणिक होना है। सुख होता है तो वह जानता है कि सुख आया, लेकिन मैं सुख नहीं हूं। दुख आता है तो वह जानता है, दुख आया, लेकिन मैं दुख नहीं हूं। उसकी चाल में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। उसके भीतर के छंद वैसे ही बने रहते हैं। उसके भीतर कुछ भी भेद नहीं पड़ता। वह दर्पण की भांति होता है। दर्पण के सामने कोई न रहे तो दर्पण खाली होने में भी प्रसन्न है। दर्पण के सामने कोई सुंदर छबि आ जाए तो भी ठीक, कोई कुरूप व्यक्ति आ जाए तो भी ठीक। दर्पण इससे कुछ विचलित नहीं होता। दर्पण अपने होने में थिर होता है। सुबह होती है, शाम होती है। ऐसे ही दुख आते हैं, सुख आते हैं, चले जाते हैं। तुम्हारे पास से गुजरते हैं, रास्ते पर चलने वाले राहगीर हैं, तुम नहीं हो। जिसे जैसे ही इस बात का स्मरण आना शुरू हुआ कि मैं पृथक हूं सारे अनुभवों से, अनुभव मात्र मुझसे अलग हैं, मैं साक्षी हूं, उसके जीवन में सत्पुरुष की सीढ़ी लगी। 'सुख मिले या दुख, पंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।' . यह पंडित की परिभाषा हुई, कि बाहर कुछ भी घट जाए, उनके भीतर आकाश वैसा का वैसा निराकार बना रहता है; कोई भेद नहीं आता। बादल आ जाएं आकाश में तो आकाश निर्विकार रहता है। बादल चले जाएं तो निर्विकार रहता है। आकाश 14
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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