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स्थितप्रज्ञ, सत्पुरुष है
आवाज फिर तुम तक नहीं पहुंचती।
पहुंचती है अभी, क्योंकि तुम्हारा रस है वहां। जहां तुम्हारा रस है, वही तुम्हें सुनाई पड़ जाता है। जब रस भीतर बहने लगता है, बाहर के छंद खो जाते हैं, बाहर का राग-रंग खो जाता है। लेकिन ध्यान रखना, यह परिणाम है।
सत्पुरुषत्व को पाना कारण है, त्याग परिणाम है। स्वयं को पाना कारण है, संन्यास परिणाम है।
संन्यास से किसी ने कभी स्वयं को नहीं पाया। स्वयं को पाने की यात्रा शुरू होती है तो संन्यास घटने लगता है।
'वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते।'
जो आत्मभोग में लगा हो, वह क्यों कामभोग की बात चलाए ? जिसका अपने से मिलन हो रहा हो, जो उस परम आनंद में डूब रहा हो, जिसके कुल-किनारे खोते जा रहे हों, जिसकी सरिता सागर में गिर रही हो, अब वह क्या बातें करे किनारों की? अब बूंद क्यों चिंतित हो अपनी सीमाओं के लिए? लेकिन सम्हलकर चलना; कामभोग छोड़ने से कोई आत्मभोग को उपलब्ध नहीं होता। आत्मभोग को उपलब्ध होने से कामभोग छूट जाते हैं। __ इसे सदा याद रखना; क्योंकि दूसरा तर्क बड़ा सुविधापूर्ण है। और तुम्हें लगता है, अभी कर सकते हो। कामभोग छोड़ना है? छोड़ सकते हो। पकड़ा तुमने है, छोड़ भी सकते हो। पकड़ने से कुछ नहीं पाया, छोड़ने से भी कुछ न पाओगे। पकड़ने से दुख पाया, छोड़ने से भी दुख पाओगे। क्योंकि दुख तो उस बाहर जाती दृष्टि में ही समाया हुआ है।
तो मैं यहां भोगियों को दुखी देखता हूं और त्यागी होने के लिए आतुर देखता हूं। त्यागियों को दुखी देखता हूं और भोगी होने के लिए आतुर देखता हूं। जो स्थिति तुम्हारी है, वहीं दुख मालूम होता है।
इसे तुम ऐसा समझो तो आसान होगा। तुम अकेले थे, तब भी तुम दुखी थे। तब तुम किसी का साथ खोजते थे, विवाह कर लें, कोई संगी-सीथी मिल जाए। फिर विवाह कर लिया, अब तुम विवाहित होकर दुखी हो। अब तुम सोचते हो, इससे तो अकेले ही होना अच्छा था। पता ही न था कि कितना सुख था अकेले होने में। मगर तुम यह मत सोचना कि संयोग से पत्नी मर जाए तो तुम बड़े सुखी हो जाओगे। पत्नी के मरते ही तुम अचानक दूसरी पत्नी की तलाश करने लगोगे। दो-चार दिन शायद तुम राहत ले लो, विश्राम कर लो, थक गए होओ ज्यादा, लेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि अकेले होने में बड़ी पीड़ा है। फिर तुम दो होना चाहते हो।
तुम्हारे भीतर भी त्याग और भोग का खेल चलता रहता है। अलग-अलग व्यक्ति ही त्याग और भोग का खेल करते हैं, ऐसा नहीं। तुम्हारे भीतर, प्रत्येक के भीतर त्याग और भोग का खेल साथ-साथ चलता रहता है। वे एक ही सिक्के के
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