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एस धम्मो सनंतनो
ध्यान के बिना कुछ भी उपलब्ध नहीं है। ध्यान यानी पात्रता; ध्यान यानी अपने
भीतर अवकाश, जगह ।
'वीतराग पुरुष ही वहां रमते हैं । ' क्यों ? वीतराग पुरुष क्यों ?
'जिन्हें काम-भोगों की तलाश नहीं ।'
क्योंकि जब तक तुम्हारे मन में काम-भोग की तलाश है, तब तक तुम्हें स्थूल का दर्शन होगा।
ऐसा समझो कि एक लकड़हारा जाता है जंगल में, सनोवर के आकाश को छूते वृक्ष, उसे केवल लकड़ियां दिखाई पड़ती हैं, जिनका ईंधन बनाया जा सकता है । या एक मूर्तिकार जाता है, उसे उस वृक्ष में मूर्तियां छिपी हुई दिखाई पड़ती हैं, जिनको उघाड़ा जा सकता है। या एक चित्रकार जाता है, या एक कवि जाता है, तो अलग-अलग अनुभव होते हैं - वृक्ष वही है ।
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और जब कोई अर्हत पहुंच जाता है उस वृक्ष के नीचे, तो जो उसे दिखाई पड़ता है, सिर्फ उसे ही दिखाई पड़ सकता है। यह मैं बिलकुल शब्दशः-यह कोई प्रतीक का उपयोग नहीं कर रहा हूं— शब्दशः ऐसा सच है । जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी देखने की सीमा की खबर है। जो अर्हत पुरुषों को दिखाई पड़ता है, उसकी कोई सीमा नहीं। उन्हें एक छोटा सा गुलाब का फूल भी परमात्मा का पर्याप्त प्रमाण जाता है। तुम्हारी दृष्टि पर...
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एक सुंदर स्त्री तुम्हें दिखाई पड़ती है, सुंदर पुरुष दिखाई पड़ता है, तत्क्षण वासना जगती है । एक अर्हत पुरुष को भी सुंदर स्त्री दिखाई पड़े तो वासना नहीं जगती, प्रार्थना जगती है। एक धन्यवाद का भाव आता है, एक अनुग्रह का भाव आता है। अगर अर्हत पुरुष भक्त हो तो परमात्मा को धन्यवाद देता है कि तूने सौंदर्य बनाया। अगर अर्हत पुरुष भक्त न हो तो धन्यवाद देता नहीं, कोई प्रार्थना नहीं उठती, कोई शब्द नहीं बनते, लेकिन एक अहोभाव, एक धन्यता का भाव - धन्यवाद नहीं, क्योंकि धन्यवाद देने को कोई भी नहीं है - लेकिन एक धन्यता का भाव कि धन्य हूं, अहोभागी हूं। होना ही इतना बड़ा अहोभाग है, और चारों तरफ सौंदर्य से भरे होना, चारों तरफ सौंदर्य से घिरे होना !
तुम पर निर्भर करता है। तुम कहां हो, यह तुम्हारा चुनाव है। तुम जहां हो, वहीं सब कुछ बदल सकता है, सिर्फ तुम्हारा चुनाव बदले ।
'ऐसे रमणीय वन हैं, जहां सामान्यजन नहीं रमते; वीतराग पुरुष ही वहां रमते हैं...।'
लेकिन उस रमणीयता को खोज तुम तभी पाओगे, जब मन से वासना गिर जाए। क्योंकि वासना तो बड़ी स्थूल है; वह तो बड़ी ओछी बात पर उलझी रहती है; उसकी नजर ही ओछी रहती है; उस नजर से वह पार जा ही नहीं सकती।
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