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________________ अश्रद्धा नहीं, आत्मश्रद्धा अगर वासना से भरकर तुमने किसी की देह को देखा तो चमड़ी का ऊपर का आकार ही तुम्हारी पकड़ में आएगा। अगर तुमने निर्वासना से भरकर किसी को देखा तो हड्डी-मांस-मज्जा के भीतर छिपा हुआ जो चैतन्य है, उसकी तुम्हें झलक मिलेगी। अब तुम थोड़ा सोचो, अगर तुम्हारा मन निर्वासना से भर जाए तो चारों तरफ कितने चिराग, कितने चिन्मय दीप, चारों तरफ कितनी मशालें जल रही हैं चैतन्य की! दीवाली प्रतिक्षण हो रही है। उत्सव चल ही रहा है। यह महोत्सव कभी समाप्त नहीं होता। क्षणभर को विराम नहीं पड़ता। एक फूल झरता है तो हजार खिल जाते हैं। एक द्वार बंद होता है तो हजार खुल जाते हैं। यह महोत्सव चलता ही चला जाता है। अर्हत पुरुष इस महोत्सव में जीता है। निश्चित ही ऐसे रमणीय वन हैं, जहां सामान्यजन नहीं रमते; केवल वीतराग पुरुष ही रमते हैं। आज इतना ही। 247
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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