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________________ अश्रद्धा नहीं, को समझ नहीं सकते। मोक्ष तुम्हारा कोई लोभ का विस्तार नहीं है । 1 इसलिए बुद्ध स्वर्ग और नर्क की बात नहीं करते, सिर्फ निर्वाण की बात करते हैं। उन्होंने मोक्ष के लिए भी नया शब्द उपयोग किया है: निर्वाण । मोक्ष शब्द का भी उपयोग नहीं किया, क्योंकि मोक्ष से ऐसा लगता है कि तुम तो बचोगे; मुक्त हो जाओगे। मोक्ष शब्द में उन्हें खतरा दिखाई पड़ा। जैसे एक आदमी जेलखाने में बंद है, फिर मुक्त हो गया तो जेलखाने से बाहर हो गया। आदमी तो रहेगा ! वही का वही रहेगा, जो जेलखाने के भीतर था । लेकिन बुद्ध कहते हैं कि जेलखाने से तुम बाहर हुए कि तुम न हुए; तुम बचोगे ही नहीं । तुम्हारा होना ही जेलखाना है । यह जेलखाना कुछ ऐसा नहीं है कि तुमसे बाहर है और तुम इसके बाहर हो सकते हो; यह जेलखाना कुछ ऐसा है कि तुम जहां रहोगे, वहीं रहेगा। यह तुम्हारे चारों तरफ चिपटा है; यह तुम्हारे होने का ढंग है। इसलिए बुद्ध को एक नया शब्द खोजना पड़ा - निर्वाण । निर्वाण का अर्थ है : संसार तुम हो; और जहां तुम नहीं हो, वहीं मोक्ष है। सबके हृदय में शूल है सबके पगों में धूल है आत्मश्रद्धा रुकना यहां पर भूल है पथ पर कहीं विश्राम के लिए सोना यहां अच्छा नहीं संसार है, संसार है सभी दुख से भरे हैं। दुख से भरे होने के कारण स्वभावतः सुख की आकांक्षा पैदा होती है। सभी नर्क में जी रहे हैं। नर्क में जीने के कारण स्वभावतः स्वर्ग की कल्पना पैदा होती है। स्वर्ग की कल्पना तुम्हारे नर्क का ही विस्तार है। सुख की कल्पना तुम्हारे दुख का ही फैलाव है। दोनों से मुक्त होना होगा; नहीं तो नींद जारी रहती है। जिसे तुम सुख कहते हो, वह ज्यादा से ज्यादा विश्राम है। सोना यही अच्छा नहीं संसार है, संसार है जिसे तुम सुख कहते हो, वह नींद है। जिसे तुम दुख कहते हो, वह जैसे किसी ने नींद उचटा दी। अच्छा नहीं लगता नींद का उचट जाना; तुम फिर सो जाना चाहते हो । दुख जगाता है, सुख सुलाता है। इसलिए जिन्होंने जीवन के सत्यों की गहरी खोज की है, वे कहते हैं, दुख सौभाग्य है, सुख दुर्भाग्य है। क्योंकि अगर तुम दुख के जागने में जाग जाओ तो तुम सत्य की खोज की यात्रा पर निकल जाते हो। लेकिन अगर तुम फिर सुख खोजने लगो, तो ऐसा ही समझो कि किसी ने जगा दिया, कुछ शोरगुल हो गया, बाजार की आवाज आ गई, सड़क से कोई कार निकल गई, नींद टूट गई, तुमने फिर करवट 241
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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