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________________ एस धम्मो सनंतनो भी लगोगे। तुम झुकोगे तो भूल होगी, क्योंकि तुम्हारे भीतर असली मंदिर है, असली परमात्मा है, असली प्रतिमा है। दैरो-हरम में सर झुके, सर के लिए यह नंग है यह अपमान है, तुम्हारी गरिमा के योग्य नहीं। झुकता है अपना सर जहां, वह दरो-आस्तां है और वह दरवाजा और है, जहां सर झुकना चाहिए। वह दरवाजा तुम्हारे ही भीतर है, वह गुरुद्वारा तुम्हारे ही भीतर है, जहां सर झुकना चाहिए। और जहां झुकना गरिमापूर्ण है। बुद्ध ने श्रद्धा ही सिखाई, लेकिन सम्यक श्रद्धा सिखाई। और सम्यक श्रद्धा का अनिवार्य हिस्सा है कि सारी अंधश्रद्धा चली जाए, पर-श्रद्धा चली जाए। आत्मवान बनो! अपने तो बनो! कम से कम अपने तो बनो, फिर तुम किसी और के भी बन सकते हो। जो अपने ही नहीं हैं, वे दूसरों के बनने निकल पड़ते हैं। पहले कदम से ही राह भटक जाती है। 'जो श्रद्धा से रहित है, जो अकृत को जानने वाला है । बड़ी बहुमूल्य सूक्ति है, 'जो अकृत को जानने वाला है।' अकृत बुद्ध कहते हैं निर्वाण कोः जो किया न जा सके; जो होता हो। इस जगत में सब चीजें की जा सकती हैं, सिर्फ एक परमात्मा नहीं किया जा सकता। वह तुम्हारे करने के बाहर है; वह तुम्हारा कृत्य नहीं है, अकृत है; उसे तुम कर न सकोगे। इस जगत में सब किया जा सकता है, समाधि नहीं की जा सकती। इस जगत में सब किया जा सकता है और करने से सब पाया जा सकता है, निर्वाण नहीं पाया जा सकता। बुद्ध ने निर्वाण तब पाया, जब वे कुछ भी न कर रहे थे। जिन्होंने भी पाया, तभी पाया, जब वे कुछ भी न कर रहे थे। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम आलसी होकर बैठ जाना; क्योंकि तुम्हारी व्याख्याएं बड़ी मजेदार हैं। तुम अपनी तरकीब निकाल लेते हो। सुनते ही तुम्हारे मन में यही खयाल उठता है कि बस, फिर तो ठीक, फिर तो हम कुछ कर ही नहीं रहे! ___ तो फिर तुम सोचने लगते हो कि फिर मैं तुम्हें क्यों इतने उपद्रवों में, ध्यान में और इस-उस में उलझाता हूं? जब कुछ न करने से मिलता है तो तुम पहले ही भले-चंगे थे, कुछ भी नहीं कर रहे थे, अब तुम्हें और मैंने उलझा दिया-ध्यान करो, प्रार्थना करो। बुद्ध को न करने से मिला, लेकिन न-करने की दशा बहत करने से आती है: जब तुम कर-करके थक जाते हो, तब आती है। जब कर-करके ऐसी घड़ी आ जाती है कि करना तुमसे गिर जाता है, तुम सम्हाल नहीं पाते उसे, तब आती है। कृत्य की आखिरी ऊंचाई पर अकृत की शुरुआत होती है। 236
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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