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अश्रद्धा नहीं, आत्मश्रद्धा
मुट्ठी बंद रखी।
यह भरोसा काम में आने वाला नहीं है। यह भरोसा तो महंगा पड़ा जा रहा है। यह तो न हो तो अच्छा। डंगमगाकर चलना, अपने ही पैर से चलना। ज्यादा देर डगमगाकर चलोगे न; गिरोगे, फिर उठोगे, धीरे-धीरे डगमगाहट कम होने लगेगी। धीरे-धीरे थिर होने की कला सीखने लगोगे। अगर तुमने अपने पैरों से नजर ही हटा ली और दूसरों के पैरों पर नजर रख ली तो दूसरे के पैर कितने ही थिर होकर चल रहे हों, वे तुम्हारे पैर नहीं हैं। और जो तुम्हारे पैर नहीं हैं, वे मंजिल तक न ले जाएंगे; अपने ही पैर ले जाते हैं। ____ हां, दूसरे से इशारे सीखे जा सकते हैं। बुद्ध पुरुषों से सीखो, लेकिन बुद्ध पुरुषों के कंधों पर बोझ मत बन जाओ। तुम जिसे श्रद्धा कहते हो, तुम समझते हो, तुम बड़ी कृपा कर रहे हो। तुम सिर्फ दायित्व फेंक रहे हो। तुम कह रहे हो, लो सम्हालो! अब अगर कुछ हुआ तो जिम्मेवारी तुम्हारी! अगर ठीक हुआ तो तुम्हारा अहंकार भरेगा कि देखो, हमने ठीक आदमी में श्रद्धा की। हमने श्रद्धा की ठीक आदमी में।
और अगर डूबे, तो तुम कहोगे, इस आदमी ने डुबाया। इस आदमी ने धोखा दिया। ऐसे अहंकार खेल खेलता है। ___इसलिए बुद्ध ने इसके लिए कोई जगह न छोड़ी। उन्होंने कहा, मेरे पास आओ तो आत्मश्रद्धा से भरकर आना; लड़खड़ाते पैर लेकर मेरे पास मत आना। क्योंकि लंबी यात्रा है, ऐसा न हो कहीं कि तुम मुझे अपनी बैसाखी समझो। मैं किसी की बैसाखी नहीं हूं। हां, मेरे चलने को देखो, मेरे चलने की कला को समझो; कैसे पैर बिना डगमगाए पड़ते हैं, यह देखो; और समझो और कला सीखो। लेकिन पैर अपने ही; यात्रा उन्हीं से होनी है-अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद ही बनना होगा। रोशनी जलाने की कला किसी से भी सीख लो, लेकिन रोशनी तो अपनी ही जलानी होगी।
आसरा मत ऊपर का देख सहारा मत नीचे का मांग यही क्या कम तुझको वरदान कि तेरे अंतस्तल में राग राग से बांधे चल आकाश राग से बांधे चल पाताल धंसा चल अंधकार को भेद
राग से साधे अपनी चाल भीतर है तुम्हारा संगीत। न तो आकाश का सहारा मांगो, न तो ऊपर का, न नीचे का। सहारा ही मत मांगो। सहारा मांगना अपमानजनक है। सहारे की बात ही तुम्हारे डुबाने का कारण बनी है। बहुत सहारे मांगे, कहां पहुंचे?
धंसा चल अंधकार को भेद
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