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एस धम्मो सनंतनो
मैंने उनसे कहा, तुम कुछ दिन सोचकर आओ। बहुत गौर से समझना, क्योंकि जब तुम कुछ भी करने में समर्थ नहीं, तो यह तो आखिरी करना है। यह तो केवल वही समर्थ हो पाता है, जो बहुत कुछ करने में समर्थ हुआ है। जिसे भरोसा आ गया है कि मैं कुछ कर सकता हूं, वही यह कर पाता है। समर्पण संकल्प की आखिरी ऊंचाई है। सिर्फ संकल्पवान ही समर्थ है समर्पण करने में।
और फिर तुम कहते हो कि मुझे तो अपने पर बिलकुल भरोसा नहीं। तो मैं तो सदा नंबर दो ही रहूंगा न! नंबर एक तो तुम्हीं रहोगे। तुम्हारे द्वारा ही तुम मुझे देखोगे। मैं तो दोयम ही रहंगा, प्रथम तो नहीं हो सकता, प्रथम तो तुम्हीं रहोगे। यह तुमने ही मुझे खोजा, यह तुम्हीं मेरे पास आए, यह तुमने ही निर्णय लिया कि सब छोड़ दें। यह तुम्हारा ही निर्णय है, इस पर तुम्हें भरोसा है ? अगर इस पर तुम्हें भरोसा है तो आत्मश्रद्धा होनी ही चाहिए भीतर। अगर इस पर तुम्हें भरोसा नहीं है तो तुम मुझ पर कैसे श्रद्धा कर सकोगे?
बुद्ध ने कहा है, जो श्रद्धा से रहित है, इसका अर्थ है : जो पर-श्रद्धा से रहित है, आत्मश्रद्धा से जो भरा है।
और ऐसा व्यक्ति अगर कभी श्रद्धा करेगा, उसकी श्रद्धा का कोई मूल्य है, अर्थ है; उसकी श्रद्धा में कोई बल है।
तुम अगर आत्मश्रद्धा से हीन हो, फिर तुम किसी पर श्रद्धा कर लेते हो, तुम्हारी श्रद्धा मूलतः ही कमजोर है; उसमें जड़ें ही नहीं हैं, कागजी है। इन कागज की नावों से कोई यात्रा होने वाली नहीं। डूबोगे, बुरी तरह डूबोगे। और मजा यह रहेगा कि तुम समझोगे कि दूसरे ने डुबाया। ___मैंने उन सज्जन से यही कहा कि तुम केवल इतनी कोशिश कर रहे हो कि अब तुम जिम्मा अपने ऊपर न रखकर मेरे ऊपर डालना चाहते हो। तुम तो डूबोगे, अब तुमने एक तरकीब निकाली कि इस आदमी के कंधों पर रख दो जिम्मा-कि सब तुम पर छोड़ा, अब अगर डूबे तो याद रखना, तुम्ही जिम्मेवार हो। तुम डूब ही रहे हो, नाव डूबी-डूबी हो रही है, सब तरफ से पानी भरा जा रहा है, घबड़ाहट में तुम श्रद्धा कर रहे हो। साबित नाव लेकर आओ।
वे कहने लगे, नाव साबित होती तो आता ही क्यों? तब उलझन है। साबित नाव हो तो आने में कुछ अर्थ है, टूटी-फूटी नाव हो तो आने में कुछ अर्थ नहीं है।
इसलिए बुद्ध ने पहली बात कही, 'जो श्रद्धा से रहित है।'
यह श्रद्धा का बड़ा अनूठा सूत्र है। जो पर-श्रद्धा से मुक्त है, वही धीरे-धीरे आत्मश्रद्धा खोजेगा। अगर तुमने पर-श्रद्धा को ही अपना आसरा बना लिया तो तुम धीरे-धीरे भूल ही जाओगे कि आत्मश्रद्धा की जरूरत है; यह तो परिपूरक हो जाएगा। यह तो ऐसा हुआ, जैसे झूठा सिक्का हाथ में आ गया और तुमने असली समझकर
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