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________________ अश्रद्धा नहीं, आत्मश्रद्धा मैं किस पक्षपात में खड़ा हो जाऊं? खोजी न हिंदू बनता है, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। खोजी कहता है, मैं सिर्फ खोजी हूं; खोज की क्या जात! खोज की कोई जात संभव नहीं है। खोज का क्या वर्ण! खोज का क्या नाम, क्या विशेषण! खोज का कौन सा मंदिर है? कौन सी मस्जिद अपनी है ? खोज के लिए सारा संसार खुला है। खोजना है; जिस दिन खोज लेंगे उस दिन घोषणा करेंगे। उसके पहले घोषणा न करेंगे। खोजी के लिए धैर्य चाहिए, श्रद्धा नहीं। खोजी के लिए अभय चाहिए, भय नहीं। खोजी के लिए दुस्साहस चाहिए और एक गहन आत्मनिष्ठा चाहिए कि खोचूंगा, शायद मिल जाए। अपने पर भरोसा चाहिए। तो जब बुद्ध कहते हैं, जो श्रद्धा से रहित है, वे यह कह रहे हैं कि वही श्रद्धा से रहित हो सकता है, जिसे स्वयं के होने में श्रद्धा है। श्रद्धा तुम दूसरे पर करो तो यह आत्म-अविश्वास है, श्रद्धा तुम अपने पर करो तो भीतर के दीए के जलने की संभावना है। अब तुम फिर से सोचो, बुद्ध का क्या मतलब है! बुद्ध तुम्हें वस्तुतः श्रद्धा से भरना चाहते हैं, इसलिए सारी झूठी श्रद्धा को खींच लेना चाहते हैं। वास्तविक श्रद्धा तो खोज की श्रद्धा है-अन्वेषण की, आविष्कार की; पक्षपात की नहीं, धारणाओं की नहीं, विचारों की नहीं, अधैर्य की नहीं। अनंत धैर्य चाहिए। और बुद्ध के वचन का यह भी अर्थ है कि जिसने अपने पर श्रद्धा की, वह अगर किसी पर कभी श्रद्धा करेगा तो उसका कोई मूल्य है। मेरे पास लोग आते हैं; एक मित्र आए, उन्होंने कहा कि मेरे किए तो कुछ नहीं होता, मैं सभी आप पर छोड़ता हूं। ____ मैंने कहा, तुम छोड़ पाओगे? तुम्हारे किए कुछ भी नहीं होता, छोड़ पाओगे? यह तुमसे हो सकेगा? वे थोड़े चौंके, थोड़े परेशान हुए। मैंने कहा कि तुमसे जब कुछ भी नहीं होता तुम्हारे किए, तो तुम इतना बड़ा काम करने चले आए? तुम थोड़ा सोचो; छोटे-मोटे काम तुम से नहीं हुए, यह तो आखिरी काम है-सब छोड़ देना। तुम मुझ पर छोड़ रहे हो, तुम्हें अपने पर भरोसा है? उन्होंने कहा, नहीं है, इसलिए तो आपके पास आया हूं। तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है, तुम्हें मुझ पर भरोसा कैसे होगा? क्योंकि तुम्ही तो मुझे खोजकर आओगे। तुम अपनी ही आंखों से तो खोजोगे। तुम्हें अपनी आंख पर भरोसा नहीं है। तुम्हारी आंख ने तुम्हें बहुत बार धोखे दिए हैं, तुम्हारी आंख इस बार भी धोखा दे रही हो तो क्या करोगे? तो भीतर शक तो बना ही रहेगा। तुम्हारी सभी श्रद्धाओं के भीतर संदेह छिपा है। तुम लाख उपाय करो, ढांको, सजाओ; तुम्हारी श्रद्धा संदेह की सजावट है, श्रृंगार है। 231
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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