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________________ एस धम्मो सनंतनो है, यह हमें पता है। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है, यह हमें पता है; मगर दोनों को पता है। बुद्ध कहते हैं, सच में तुम्हें पता है ? थोड़ा सोचो, थोड़ा मनन करो, तुम्हें पता है? तो पैर के नीचे से जमीन खिसकती मालूम होगी। ____ पता तो नहीं है; सुन रखा है, कहा है किसी ने, सुना है किसी से, समझ लिया है, मान भी लिया है। माना क्यों है? बुद्ध कहते हैं, तुम्हारी सारी श्रद्धा के पीछे भय है। तुम्हारी श्रद्धा भय का ही विस्तार है। बिना ईश्वर को माने बड़ी कठिनाई है। हजार उलझनें खड़ी हो जाती हैं. जो हल नहीं होती। फिर किसने संसार बनाया? फिर किसने यह सब सृष्टि रची? प्रश्न ही प्रश्नों की कतारें खड़ी हो जाती हैं, उत्तर नहीं मिलते। और बिना उत्तर के बेचैनी होने लगती है। ऐसा भी नहीं है कि श्रद्धा से उत्तर मिल जाते हैं, लेकिन उत्तर का आभास मिल जाता है। उतने से ही आदमी राहत मान लेता है। न सही सत्य, सत्य का आभास ही सही। थोड़ा भरोसा आ जाता है, थोड़ी सांत्वना हो जाती है। . नास्तिक की भी तकलीफ यही है। उसकी तकलीफ यही है कि ईश्वर को मानने से हजार प्रश्न खड़े होते हैं। दुनिया में दो तरह के लोग मैंने देखे। एक हैं, जिनको ईश्वर न हो तो प्रश्न खड़े होते हैं; और एक हैं कि जिनको ईश्वर हो तो प्रश्न खड़े होते हैं; मगर दोनों की तकलीफ यह है कि ईश्वर के होने, न होने से उन्हें प्रश्न खड़े होते हैं। और कोई न कोई उत्तर चाहिए। बिना उत्तर के सिर्फ प्रश्न में जीना बड़ा कष्ट है, बड़ा दूभर है। सिर्फ प्रश्न में जीना, समस्या में घिरे सब तरफ से, हाथ में कुछ भी सूत्र नहीं, बड़ी हिम्मत की बात है। सिर्फ दुस्साहसी प्रश्नों के साथ जी सकते हैं। और इसलिए सिर्फ दुस्साहसी ही सौभाग्यशाली हैं; कभी उनको उत्तर मिलते हैं। अगर तुमने उत्तर मिलने के पहले उत्तर मान लिए तो उत्तरों के आने की राह रोक दी, अवरोध खड़े कर दिए। इसलिए बुद्ध कहते हैं, 'जो श्रद्धा से रहित है।' श्रद्धा से रहित का अर्थ है: प्रश्नों को तो जानता है, उत्तरों को कैसे मान ले? - सभी उत्तर एक जैसे हैं। कोई कहता है, ईश्वर है; कोई कहता है, ईश्वर नहीं है; मैं कैसे मान लूं? तो मैं चुपचाप बिना माने खड़ा रहता हूं। मैं कोई चुनाव नहीं करता, मैं कोई निर्णय नहीं लेता। मैं कहता हूं, खोजूंगा। जब तक मैं न खोज लूंगा, तब तक मैं कैसे कहूं, कौन तुममें ठीक है। हो सकता है, दोनों गलत हों। हो सकता है, दोनों ठीक हों। हो सकता है, कोई एक ठीक हो, कोई दूसरा गलत हो। सभी कुछ संभव है। खोजी कहता है : स्यात् ऐसा हो, स्यात् वैसा हो; मुझे अभी पता नहीं, इसलिए 230
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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