________________
अश्रद्धा नहीं, आत्मश्रद्धा
कैपिटल अभी बड़ा नया वेद है, अभी बड़ी अकड़ से भरा है, अभी समय की चोटें बहुत नहीं खाई हैं, अभी सौ साल ही हुए हैं उस किताब को लिखे हुए।
तो जैसे बच्चे में अकड़ होती है, सीमाओं का बोध नहीं होता, सब कुछ को पा लेने का खयाल होता है, कुछ भी असंभव नहीं है ऐसी धारणा होती है—ऐसी ही अवस्था है। न तो हिंदु वेद को पढ़ते हैं, न कम्युनिस्ट कैपिटल को पढ़ते हैं। मुझे अब तक कोई कम्युनिस्ट नहीं मिला, जिसने पूरी कैपिटल पढ़ी हो; न कोई हिंदू मिला है, जिसने पूरा वेद पढ़ा हो।
पढ़ने की जरूरत ही क्या है? मानना जब हो तो पढ़ने की जरूरत क्या है? मान लिया, बात खतम हो गई। असल में मान लेने के पीछे यही तो छिपा है कि पढ़ने की भी झंझट कौन करे? खोजने की भी झंझट कौन करे? ठीक है, ठीक ही होगा; झंझट मिटी।
नास्तिक की भी श्रद्धा होती है; वह कहता है, ईश्वर नहीं है। यह उसकी श्रद्धा है। आस्तिक इसे अश्रद्धा कहता है, क्योंकि आस्तिक की श्रद्धा है कि ईश्वर है। अगर तुम नास्तिक से पूछो तो वह कहेगा कि आस्तिक जिसको श्रद्धा कहता है, वह अश्रद्धा है। वह नास्तिक के ईश्वर में अश्रद्धा है। नास्तिक कहता है, ईश्वर नहीं है, यही उसका ईश्वर है।
कभी तुमने गौर किया, नास्तिक भी मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। यह बड़े मजे की बात है। ईश्वर है ही नहीं; तो अगर कोई आस्तिक ईश्वर के लिए मरने-मारने को उतारू होता हो तो समझ में आता है कि चलो, कम से कम इसका ईश्वर है तो! नास्तिक भी मरने-मारने को उतारू हो जाता है उसके लिए, जो है ही नहीं; विवाद करता है, जीवन गंवाता है। आस्तिकों से भी ज्यादा नास्तिक विवाद में समय गंवाते हैं।
कोई पूछे कि जो है ही नहीं, उसके लिए तुम परेशान क्यों हुए जा रहे हो?
नहीं, जो नहीं है, इतने पर ही बात पूरी नहीं हो जाती; इसे सिद्ध करना पड़ेगा। इसके लिए प्रमाण जुटाने पड़ेंगे कि नहीं है। और जो कहते हैं कि है, उनको गलत सिद्ध करना पड़ेगा, क्योंकि यह श्रद्धा का मामला है। अगर दूसरा कहे चला जाए कि है, तो हमारी श्रद्धा को डगमगाहट पैदा होती है, संदेह पैदा होता है कि कहीं हो ही न! इसलिए सारा इंतजाम करना पड़ता है नास्तिक को भी, कि नहीं है। उसको नहीं के मंदिर बनाने पड़ते हैं। उसे इनकार के शास्त्र निर्मित करने पड़ते हैं।
बुद्ध अश्रद्धा नहीं सिखा रहे हैं, बुद्ध कह रहे हैं, श्रद्धा न हो। बुद्ध यह कह रहे हैं कि तुम्हारा चित्त मान्यता से घिरा न हो-न इस तरफ, न उस तरफ। जब जाना ही नहीं है तो हम निर्णय कैसे करें? पता नहीं, है; पता नहीं, न हो। हमें पता नहीं है। तो हम अपने इस अज्ञान को किसी ज्ञान से न ढांकें।
आस्तिक का भी दावा वही है, जो नास्तिक का है। आस्तिक कहता है, ईश्वर
229