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________________ एस धम्मो सनंतनो अनुभवों से कुछ सार ले सकते हो, जो तुम्हें राह में चलने में सहयोगी हो जाएगा, लेकिन राह नहीं ले सकते। ___ इसलिए बुद्ध ने कहा है, बुद्ध पुरुष केवल इशारा करते हैं। उनकी अंगुलियों को पकड़कर, मानकर बैठ मत जाना। उनके इशारे मंजिल नहीं हैं; चलना तुम्हें होगा, यात्रा तुम्हें करनी होगी, भटकना तुम्हें होगा। सत्य को पाने में, सत्य के मार्ग पर मिली हुई कठिनाइयां अनिवार्य हिस्सा हैं। क्योंकि सत्य कोई वस्तु थोड़े ही है, जो बाहर रखी है; उसकी खोज में ही तुम्हारे भीतर जो निर्मित होता है, वही सत्य है। उसकी खोज में, सतत चेष्टा में, बार-बार भटककर फिर-फिर तुम लौट आते हो, फिर-फिर खोजते हो, गिरते हो, उठते हो; हजार बार हाथ से सूत्र छूट जाता है, फिर तलाशते हो। इस सारी खोज में तुम्हारे भीतर कोई संगठित होने लगता है प्राण। इस सारी खोज में तुम्हारे भीतर टूटे हुए, बिखरे हुए खंड करीब आने लगते हैं। एक रासायनिक प्रक्रिया घटती है, एक कीमिया से तुम गुजर जाते हो। तुम बिखरे टुकड़े नहीं रह जाते, तुम संगठित हो जाते हो। तुम्हारे भीतर आत्मा का जन्म होता है। वही आत्मा सत्य है। __ सत्य की खोज में ही सत्य निर्मित होता है। सत्य की खोज सत्य के जन्म की प्रक्रिया है। सत्य कहीं तैयार होता तो हम दूसरों से उधार ले लेते, रास्ते बना लेते, नक्शे तैयार हो जाते, दिशा-सूचक निशान लगा देते, मील के पत्थर गाड़ देते, सब चीजें सरल हो जाती। भीड़ चुपचाप चली जाती। कुछ खोजना न पड़ता। लेकिन सत्य बाहर नहीं है। खोजते हो तुम, तुम्हारे भीतर निर्मित होता है। जैसे गर्भ में बच्चा निर्मित होता है, ऐसे तुम्हारे भीतर सत्य का जन्म होता है। प्रसव की पीड़ा से गुजरना ही होगा। गर्भ को, गर्भ के बोझ को ढोना ही होगा। तो जब बुद्ध कहते हैं, जो श्रद्धा से रहित है, तो वे यह कह रहे हैं: जो मान्यताओं से मुक्त है, जिसने विश्वास नहीं किया, जो खोजने को तत्पर है, जो खोजेगा तो ही मानेगा, जो खोज के पहले नहीं मानेगा। इसका क्या अर्थ हुआ? क्या इसका यह अर्थ हुआ कि जो अश्रद्धा से भरा है? नहीं, फिर तुम चूक जाओगे। वही भूल भारत के पंडितों ने की; उन्होंने समझा, बुद्ध अश्रद्धा सिखाते हैं। बुद्ध केवल इतना कह रहे थे कि श्रद्धा छोड़ो। बुद्ध अश्रद्धा पकड़ने को नहीं कह रहे थे; क्योंकि फिर अश्रद्धा ही श्रद्धा हो जाती है। तुम जिसे पकड़ लेते हो, वही श्रद्धा हो जाती है। नास्तिक की भी श्रद्धा होती है। आस्तिक उसको अश्रद्धा कहता है, नास्तिक के लिए तो वह श्रद्धा ही होती है। किसी कम्युनिस्ट से पूछो! उसके लिए तो कार्ल मार्क्स की कैपिटल वैसे ही है, जैसे हिंदुओं के लिए वेद है, मुसलमानों के लिए कुरान है। और हिंदुओं का वेद तो हजारों साल की चोटें खा-खाकर थोड़ा नब भी गया है, विनम्र भी हो गया है: 228
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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