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________________ एस धम्मो सनंतनो कैसे सकेगी? जिसे अपने पर श्रद्धा नहीं है, उसे अपनी श्रद्धा पर भी कैसे श्रद्धा हो सकेगी? जिसे अपने पर भरोसा नहीं है, उसे अपने भरोसे पर कैसे भरोसा आएगा? धोखा होगा। दूसरे के भरोसे में तुम केवल आत्म-अश्रद्धा को छिपा लोगे। दूसरे के पीछे चलकर तुम चलने की जो कठिनाई थी, उससे बच जाओगे। दूसरे का अनुकरण करके वह जो खोज की चुनौती थी, उसे चूक जाओगे। __अभियान है जोखिम से भरा; तुम जोखिम नहीं उठाना चाहते। तुम भोजन भी पचा-पचाया चाहते हो। कोई चबा दे, कोई तुम्हारे मुंह में चबाया उगल दे, ताकि तुम्हें मुंह भी न चलाना पड़े। जूठा भोजन करने से तुम्हें मितली आएगी, लेकिन जूठी श्रद्धा से तुम्हें मितली नहीं आती? कोई दूसरा दे देता है और तुम मान लेते हो? इससे सिर्फ एक ही बात पता चलती है कि मानने का तुम्हारे मन में कोई मूल्य ही नहीं। तुम दूसरे के उतारे कपड़े पहनने को राजी नहीं होते, क्योंकि कपड़ों का तुम्हारे मन में कोई मूल्य है; लेकिन उन दूसरों के उतारे शास्त्र पहनने को राजी हो जाते हो। इससे एक ही बात पता चलती है कि तुम्हारे मन में कोई मूल्य ही नहीं है। तुम इस बात को इतना व्यर्थ समझते हो कि अपना हुआ कि पराया, हुआ कि न हुआ, सब बराबर है। सत्य की गरिमा तुम्हारे मन में नहीं है; अन्यथा तुम उधार कैसे स्वीकार करते? सत्य और उधार! सत्य और किसी और का! एक पंडित एक चमार की दुकान पर जूते सुधरवाने गया था। जते की हालत बड़ी बुरी थी। तो उस चमार ने कहा, दो-चार दिन लगेंगे। पंडित ने कहा, यह तो बड़ा मुश्किल होगा। दो-चार दिन मुझे बिना जूते के चलना पड़ेगा। जल्दी नहीं हो सकती? दो-चार घंटे में नहीं हो सकता? तो उस चमार ने कहा, ऐसा करो, यह एक जोड़ी सुधरी पड़ी है; यह तुम दो-चार दिन पहन लो। फिर तुम्हारी ठीक हो जाए, ले जाना; यह वापस कर जाना। पंडित ने वह जोड़ी देखी, वह किसी और की जोड़ी थी, जो उसने सुधारकर रखी थी। उसने कहा, सोच-समझकर बात कर, मैं और किसी दूसरे के जूते उधार पहनूंगा? किसी के पहने हुए जूते? तूने मुझे समझा क्या है? वह चमार हंसने लगा; उसने कहा कि मैंने तो सोचा, आप पंडित हैं; इतने उधार जूते पहने हुए हैं, एक और हो जाएगा तो क्या हर्ज है? जिसने आत्मा तक के वस्त्र उधार ले लिए, वह पैरों में जूते डालने में दूसरों के परेशान हो रहा है! लेकिन पैरों का हमारे मन में मूल्य है, आत्मा का कोई मूल्य नहीं है। बुद्ध कहते हैं, 'जो श्रद्धा से रहित है।' । तुम किसे श्रद्धा कहते हो? तुम किसे विश्वास कहते हो? तुम अकेले घबड़ाए हुए हो, तुम अकेले कंप रहे हो, तुम किसी का सहारा पकड़ लेते हो। लेकिन कौन 226
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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