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________________ अश्रद्धा नहीं, आत्मश्रद्धा धारणाएं हैं धर्म की, श्रद्धा की। बुद्ध ने सब धारणाएं छिन्न-भिन्न कर दीं। काश, हम उन्हें समझ लेते तो भारत की यह लंबी रात कभी की टूट गई होती! ___अभी भी नहीं टूटी है, अभी भी बुद्ध घर वापस नहीं लौट पाते हैं। अभी भी भारत के द्वार-दरवाजे बंद हैं। बुद्ध शब्द ही घबड़ाता है, भयभीत करता है। दो हजार साल, ढाई हजार साल भारत के पंडितों ने बुद्ध के खंडन में लगाए। जैसे बुद्ध ही अधर्म के प्रतीक हो गए। इससे बड़ा कभी कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ। इससे ऊंची भगवत्ता की उड़ान किसी और ने नहीं ली। अगर किसी को भगवान कहें तो वह यही व्यक्ति है। और किसी ने अगर धर्म की गहनतम अनुभूतियों को पाया तो वह यही व्यक्ति है। फिर भी क्या हुआ कि भारत जैसा देश न समझ पाया? भारत, जो अपने को धार्मिक कहता है; भारत, जिसकी बड़ी पुरातन परंपरा है! बेबीलोन था कभी, खो गया; मिश्र था कभी, खो गया; यूनान था कभी, खो गया; सभ्यताएं आयीं और गयीं, भारत बना रहा है। हजारों सभ्यताएं बनीं और मिटीं, धूल होकर खो गयीं; भारत का भवन खड़ा रहा है; बड़ा प्राचीन है। फिर भी इतना प्राचीन देश बुद्ध को न समझ पाया? ऐसा मन में सवाल उठता है। लेकिन सच यह है कि इस प्राचीनता के कारण ही न समझ पाया। बुद्ध इतने नवीन हैं, इतने नित-नूतन हैं कि बुद्ध को समझने के लिए नई आंख चाहिए, जवान आंख; कुंआरा मन चाहिए। भारत के पास बड़ा खंडहर जैसा मन है; इसमें इतनी धूल जम चुकी है कि जब भी कोई नई सूरज की किरण आती है तो सूरज की किरण भी धूल-धवांस में दब जाती है। जब भी कोई नया फूल खिलता है, खंडहर इतना पुराना है कि कोई भी ईंट गिरकर फूल को दबा देती है और मार डालती है। यहां फूल खिलना ही कठिन हो गया है। घास-पात ही खिलता है, झाड़-झंखाड़ ही उगते हैं, गुलाब और कमल खो गए हैं: जूही और बेलों की जगह नहीं रही है। . • इसलिए बहुत समझकर सुनना। _ 'जो श्रद्धा से रहित है, जो अकृत को जानने वाला है, जो संधि को छेदन करने वाला है, जो हतावकाश है और जिसने तृष्णा को वमन कर दिया है, वही उत्तम पुरुष है।' _ 'जो श्रद्धा से रहित है।' श्रद्धा का शास्त्र हम समझें। श्रद्धा का शास्त्र जैसा तुम जानते हो, जैसा तुम मानते हो, पहले उसे समझें। उसे समझे बिना यह सूत्र न समझा जा सकेगा। श्रद्धा का अर्थ है : तुम्हें अपने पर श्रद्धा नहीं तो तुम किसी और का सहारा खोजते हो; तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं तो तुम किसी और का भरोसा खोजते हो। थोड़ा सोचो लेकिन, जिसे अपने पर श्रद्धा नहीं है, उसे किसी और पर श्रद्धा हो 225
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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