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________________ एस धम्मो सनंतनो भीड़ पूरब को जाती हो, वे पश्चिम को जाते हैं, लेकिन भीड़ में हैं। कुछ भेद नहीं है उनमें। भाषा उनकी भी वही है । जिंदगी आधी से ज्यादा गुजर जाती है, जब तुम्हें थोड़ा सा समझ में आना शुरू होता है कि यह तो कुछ सार न हुआ। कमाया, वह कुछ गंवाया जैसा लगता है। जो पाया, वह सिर्फ मुंह में एक कडुवा स्वाद छोड़ गया है। कोई प्रतीति नहीं होती उपलब्धि की। ऐसा नहीं लगता कि जीवन की नियति पूरी हुई। ऐसा नहीं लगता कि हम कहीं पहुंचे, कोई मंजिल करीब आई। कोई बीज टूटा, वृक्ष बना, ऐसा मालूम नहीं होता। कोई दीया जला, रोशन हुआ, ऐसा मालूम नहीं होता। हाथ खाली के खाली लगते हैं। तो स्वभावतः उस क्षण तुम्हें विपरीत तर्क पकड़ में आना शुरू होता है कि भोगकर देख लिया, गलत था यह, संसारी गलत थे, अब त्यागियों की सुनना शुरू करते हो । आधी जिंदगी लोग संसार में गंवा देते हैं, कभी अगर होश भी आया तो आधी फिर संन्यास में गंवा देते हैं। तर्क वही है। पहले वस्तुएं इकट्ठी करते थे, अब वस्तुएं छोड़ते हैं; लेकिन नजर वस्तुओं पर लगी होती है। नजर का भीतर जाना जरूरी है। बहे जाते हो रवानी के साथ उलटे पतवार घुमाओ तो जानें और जब नजर भीतर की तरफ चलती है तो उलटे पतवार घूमते हैं । जब तक नजर बाहर की तरफ जाती है, तब तक तुम भीड़ के साथ चल रहे हो । तब तक तुम हो ही नहीं, भीड़ है। तुम नहीं हो, भीड़ है अंधों की भीड़ है बहरों की, भीड़ है मुर्दों की; तुम नहीं हो । तब तक तुम धक्के - मुक्के में चलते चले जाते हो। तुमने कभी मेलों में देखा कि अगर भीड़ की रवानी में पड़ जाओ तो तुम न भी जाना चाहो तो भी चलना पड़ता है, नहीं तो कुचल दिए जाओगे । सारी भीड़ जा रही है, भागी जा रही है, तुम्हें भी भागना पड़ता है। अगर खड़े होओगे तो गिरोगे। उलटे जाना मुश्किल है, खड़े होना मुश्किल है, चलना ही एकमात्र सहारा मालूम पड़ता है । इसलिए नहीं कि तुम चलना चाहते हो । हजारों लोगों के भीतर झांककर मैंने पाया कि वे चलना नहीं चाहते, थक गए हैं। लेकिन चारों तरफ से भीड़ है - पत्नी है, बच्चे हैं, पति है, मां है, बाप है, मित्र है, परिवार है, दुकान है, बाजार है - सारी भीड़ भागी जा रही है। सारा संसार भागा जा रहा है। उस भागने के साथ न भागो तो कुचल दिए जाओगे । बहे जाते हो रवानी के साथ उलटे पतवार घुमाओ तो जानें जिंदगी में जो पहली महत्वपूर्ण घटना घटती है किसी व्यक्ति के, वह है कि आंख बंद हो और भीतर की तरफ पतवार घूमने लगे। चेतना की नाव भीतर की तरफ 10
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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