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________________ स्थितप्रज्ञ, सत्पुरुष की धूल थोड़ी झड़ती है, चेतना के बादल थोड़े हटते हैं, तुम्हारे भीतर थोड़ी जगह होती है जहां जागरण हो सके, भीतर का दीया थोड़ा जलता है, अंधेरा थोड़ा कटता है, वहां तुम अचानक देखते हो कि तुम जिन चीजों को मूल्य दे रहे थे, उनमें कोई भी मूल्य नहीं। जिन चीजों को तुमने अपना सारा जीवन समर्पित किया था, उन चीजों कोई भी मूल्य नहीं । तुम छाया के लिए आत्मा गंवा रहे थे। मरते दम तक लोग गंवाए चले जाते हैं छाया के लिए आत्मा । मरते दम तक आदमी भिखारी बना रहता है । वस्तुओं की मांग जारी रहती है। है मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे - लाली में अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी आदमी गिड़गिड़ाए ही चला जाता है कि अभी तेरे शराब के प्याले में थोड़ी और बाकी है, थोड़ी और बाकी है। मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे-लाली में कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी जिंदगी खोती चली जाती है, मौत की मूर्च्छा आने लगी, मौत की नींद घेरने लगी। और आदमी चिल्लाए चला जाता है, मुझे पीने दे, मुझे पीने दे। - मरते हुए आदमी को देखो। अभी भी जार-जार आंसू रो रहा है – उस जिंदगी के लिए, जिसमें कुछ भी न पाया; उस भाग-दौड़ के लिए, जो कहीं न पहुंचाई। और दौड़ना चाहता है। अगर कहीं कोई परमात्मा हो तो और मांग लेना चाहता है— चार दिन और मिल जाएं। जो मिले थे दिन, वे ऐसे ही गंवाए। और भी मिल जाएंगे तो ऐसे ही गंवाएगा। जिंदगी को हम छाया के मंदिरों में समर्पित किए हैं। बहे जाते हो रवानी के साथ उलटे पतवार घुमाओ तो जानें संभलकर कदम रखने वाले बहुत हैं। पाने को सब कुछ गंवाओ तो जानें ভন लेकिन सब कुछ गंवाने के लिए वही राजी होता है, जिसे सब कुछ में कुछ भी नहीं है, यह दिखाई पड़ता है। हीरा उसी दिन तुम्हारे हाथ से छूटकर गिर जाता है, जिस दिन कंकड़ दिखाई पड़ता है। कंकड़ उसी क्षण उठकर आत्मा में विराजमान हो जाता है, जिस क्षण हीरा मालूम पड़ता है। अंततः तुम्हारा बोध निर्णायक है। तुम मूल्य देते हो, उठा लेते हो। तुम मूल्य नहीं देते, गिर जाता है। सारी बात तुम्हारे बोध की है, तुम्हारी दृष्टि की है, तुम्हारी प्रतीति की है। चारों तरफ करोड़ों लोगों की भीड़ है, वह छाया के सहारे चल रही है । उसी में तुम पैदा होते हो। बचपन से तुम भी उसी की भाषा सीखने लगते हो। फिर इस भीड़ में एक छोटा सा तबका है त्यागियों का भी; वह भी इसी भीड़ में है। भला भीड़ पैर के बल चलती हो, वे सिर के बल शीर्षासन करते खड़े हैं, लेकिन भीड़ में हैं। भला 9
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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