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कुछ खुला आकाश!
नहीं, वहां बाती बुझी पड़ी है और तुम दूसरों के दीए जलाने निकल पड़ते हो।
इस भ्रांति में मत पड़ना। बड़े छिपाकर रखना, जो भीतर आ रहा है। जिस दिन होगा, उस दिन तो खबर मिलनी शुरू हो जाएगी। जब फूल खिलता है तो हवाओं में गंध उठ जाती है। जब तुम्हारे पास होगा तो तुम छिपाकर भी छिपा न पाओगे। जिनको भी तलाश है, जिनको भी प्यास है, जिनको भी जुस्तजू है, खोज है, वे दूर से खिंचे चले आएंगे। पहाड़ और समुंदर भी उनके लिए बाधा न बनेंगे। जिन्हें प्यास नहीं है, जिन्हें खोज नहीं है, वे पास बैठे भी वंचित रह जाएंगे।
तुम चिंता मत करना। पहले तो तुम अपने को भर लो-ऐसा लबालब कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगे-फिर जिनको प्यास है, वे खोजते चले आएंगे; वे सदा ही खोज रहे हैं। और तब तुम मुक्तहस्त बांटना। बांटोगे ही! बांटना ही पड़ेगा!
भुनती वसुधा तपते नभ दुखिया है सारा अगजग कंटक मिलते हैं प्रतिपग जलती सिकता का यह मग बह जा बन करुणा की तरंग जलता है यह जीवन पतंग
बह जा बन करुणा की तरंग बहना ही होगा। बहना हो ही जाता है। क्योंकि ध्यान का अनिवार्य परिणाम करुणा है। जैसे दीया जलता है तो रोशनी फैलती है, ऐसे ध्यान का अनिवार्य परिणाम करुणा है।
बुद्ध ने इसे प्रतीक माना है : प्रज्ञा और समाधि और करुणा। तीन की त्रिवेणी है, बुद्ध के सारे वचनों का सार। तीनों एक साथ घटती हैं। इधर समाधि, उधर भीतर ज्ञान का दीया जलता है, और बाहर करुणा की तरंगें फैलनी शुरू हो जाती हैं।
ये तीनों एक साथ घटती हैं। यह त्रिमूर्ति है। यह बुद्ध की ट्रिनिटी है। ये बुद्ध के ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं। यह बुद्ध का संगम है, तीर्थराज प्रयाग है। इसमें से दो दिखाई पड़ती हैं। एक दिखाई नहीं पड़ती। सरस्वती अदृश्य है, गंगा-यमुना दिखाई पड़ती हैं। प्रज्ञा और करुणा दिखाई पड़ेगी, समाधि दिखाई नहीं पड़ेगी, वह सरस्वती है।
तुम किसी की समाधि नहीं देख सकते। मैं सामने बैठा हूं, तुम कैसे मेरी समाधि देख सकते हो! समाधि अदृश्य है। करुणा दिखाई पड़ सकती है, क्योंकि करुणा तुम पर बरसती है, समाधि मेरे भीतर है। प्रज्ञा दिखाई पड़ सकती है, ज्ञान दिखाई पड़ सकता है, क्योंकि ज्ञान तुम पर बरसता है। प्रकाश दिखाई पड़ सकता है प्रज्ञा का, क्योंकि तुम्हारे अंधेरे में किरणें उतरेंगी, उन किरणों की पहचान से तुम समझोगे, कहीं सूरज ऊगा है।
करुणा दिखाई पड़ सकती है, क्योंकि हलके-हलके पदचाप भी नहीं पड़ेंगे और
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