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________________ एस धम्मो सनंतनो परमात्मा की बात कर रहे हैं, वह परमात्मा है ही नहीं, वह सिर्फ प्रेम की शत्रता है: वह केवल संसार के विपरीत दूसरी अति है। मैं जिस परमात्मा की बात कर रहा हूं, वह अति नहीं है, वह बाहर और भीतर दोनों का अतिक्रमण है। वह परम संतुलन की अवस्था है, पूर्ण विराम है। मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि आप भी परमात्मा की बात करते हैं, हमारे गुरु हैं, वे भी परमात्मा की बात करते हैं, सब एक ही है। मैं उनको कहता हूं, इतना आसान नहीं है; सब एक ही है, कहना इतना आसान नहीं है। थोड़ा गौर से समझने की कोशिश करना। शब्द तो वही है; मैं भी परमात्मा शब्द का उपयोग करता हूं, तुम्हारे गुरु भी करते होंगे, लेकिन तुम्हें देखकर मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे गुरु का परमात्मा और ही होगा-प्रेम से भयभीत, प्रेम के विपरीत, प्रेम का दुश्मन। तो तुम्हारे महात्माओं का परमात्मा उनकी ईजाद है, असली नहीं। असली परमात्मा तो प्रेम के खेल को खेले चला जाता है। असली परमात्मा तो प्रेम के नए-नए रूप रचे जाता है। असली परमात्मा तो कितने रंग लेता है, कितने रूप लेता है, कितने रंगों, कितने रूपों में प्रेम का रास रचता है। ___संसार के विपरीत नहीं हो सकता परमात्मा। संसार के पार हो सकता है, विपरीत नहीं। जो विपरीत है, वह तो जब संसार खतम हो जाएगा, वह भी खतम हो जाएगा। जो पार है, वही अतियों के पार बचेगा। परमात्मा साधना नहीं है, सिद्धावस्था है। परमात्मा कोई विधि नहीं है, जैसा कि पतंजलि ने माना है कि परमात्मा विधि है, कि उसके आलंबन को लेकर, उसके प्रति समर्पण करके आदमी परम अवस्था को पहुंच जाता है। पतंजलि का परमात्मा विधि है, साधना का हिस्सा है; उसका उपयोग केवल इतना है कि तुम उसके सहारे समर्पण कर दो। मगर ऐसा परमात्मा तो जब तुम सिद्ध हो जाओगे, छूट जाएगा। जब तुम सिद्ध अवस्था को उपलब्ध होओगे तो ऐसे परमात्मा की क्या जरूरत रह जाएगी? यह तो मार्ग का ही हिस्सा था, यह खो जाएगा। परमात्मा मार्ग नहीं है, मंजिल है। परमात्मा दाएं-बाएं नहीं, परमात्मा की अगर थोड़ी-बहुत झलक तुम्हें मिल सकती है तो मार्ग के ठीक मध्य में मिल सकती है। इसलिए बुद्ध ने अपने मार्ग को मज्झिम निकाय कहा है : मध्य में, ठीक बीच में। मगर बीच से भी सिर्फ झलक मिलती है। लेकिन बीच से अतिक्रमण जुड़ा है। उस बीच के बिंदु को तुम खोज लो तो पार जाने की सीढ़ी मिल सकती है। ध्यान रखना, प्रेम से लोग इसलिए वंचित रह जाते हैं कि प्रेम की शर्त ही पूरी करनी कठिन पड़ती है। प्रेम की शर्त है : क्षणभर को मिटना; क्षणभर को ही सही, तिरोहित हो जाना। बेदार राहे-इश्क किसी से न तय हुई सहरा में कैस, कोह में फरयाद रह गया 210
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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