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________________ कुछ खुला आकाश! को है, कुछ मिलने का सवाल न रहा; तुम हो गए; जैसे हो बस, उसमें डूब रहे-आंख बंद हो गई। फिर आंख खुली भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आंख बंद हो गई। तुमने बुद्ध पुरुषों की मूर्तियां देखीं? आंख न तो खुली है और न बंद है, अधखुली है। अधखुली प्रतीकात्मक है; उसका अर्थ है : न बाहर, न भीतर; जरा सी खुली है, नीचे की सफेद पुतली दिखाई पड़ती है। __इसलिए योग में व्यवस्था है कि ध्यानी जब ध्यान करने बैठे तो इस तरह बैठे कि सिर्फ नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे, बस! इसका मतलब हुआ, आंख बस आधी खुली हो, आधी बंद हो। प्रतीकात्मक है, प्रयोजन केवल इतना है कि न तुम भीतर जाओ, न तुम बाहर जाओ, बीच में संध्याकाल में ठहर जाओ। प्रेम संध्याकाल है। तुम कहते हो, तुमने प्रेम जाना। प्रेम बहुत कम लोग जान पाते हैं, क्योंकि जिन्होंने प्रेम को जान लिया, उन्हें फिर परमात्मा को जानने में बाधा क्या रही? जिन्होंने प्रेम को जान लिया, फिर कोई कारण समझ में नहीं आता कि वे परमात्मा को जानने से क्यों वंचित रह गए हैं? यह हो नहीं सकता। जिनके हाथ में कुछ हीरे आ गए, उनके हाथ में पूरी खदान ही आ गई। हीरे ही न आए होंगे, कंकड़-पत्थरों को समझ लिया होगा हीरे हैं, इसलिए खदान नहीं मिली है। रामानुज के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे परमात्मा से मिलना है। रामानुज ने उसे गौर से देखा और कहा कि तूने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा कि इन झंझटों में मैं कभी पड़ा ही नहीं। छोड़ें ये बातें। मुझे तो प्रेम से क्या लेना-देना? परमात्मा की खोज है। लेकिन रामानुज ने कहा, तू थोड़ा सोच, कभी किसी से किया हो प्रेम? किसी से भी किया हो, कोई याददाश्त तुझे आती हो? उसने कहा कि आप भी कहां की बात कर रहे हैं! मैं परमात्मा की बात करता हूं, आप दूसरा ही विषय छेड़ रहे हैं। मैं साधक पुरुष हूं, विरागी हूं, प्रेम वगैरह की झंझट में मैं कभी नहीं पड़ा। ___ मगर रामानुज भी अजीब; वे फिर पूछे कि फिर भी तू सोच, क्योंकि सारी बात इसी पर निर्भर है। अगर तूने प्रेम का क्षण जाना हो तो फिर परमात्मा की शाश्वतता को भी जान सकेगा। अगर प्रेम की बूंद ही नहीं चखी तूने तो सागर को तू कैसे चखेगा? सागर में तू कैसे उतरेगा? लहर को तो पहचान, फिर सागर को पहचान लेंगे। उस आदमी की समझ में न आया। वह शायद नाराज ही होकर चला गया। जिनको तुम विरागी कहते हो, उनको समझ में कैसे आएगा? जिनको तुम महात्मा कहते हो, वे तो प्रेम के दुश्मन बनकर बैठे हैं। उनका परमात्मा प्रेम के विपरीत है। मैं जिस परमात्मा की बात कर रहा हूं, प्रेम उसका द्वार है। तुम्हारे महात्मा जिस 209
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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