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________________ कुछ खुला आकाश ! विज्ञान भैरव तंत्र में इस विधि को बड़ा मूल्य दिया गया है। जब श्वास न बाहर जाती है, न भीतर, जब सब ठहर गया होता है, उसमें ही डूब जाओ; वहीं से तुम द्वार पा लोगे परमात्मा का । 3 प्रेम भी ऐसी ही घड़ी है। कामना बाहर जाती है, प्रार्थना भीतर जाती है; प्रेम ऐसी घड़ी है, जब तुम न बाहर जाते, न भीतर जाते। और मजा यही है कि जब तुम न बाहर जाते और न भीतर जाते, तो तुम हो ही नहीं सकते। क्योंकि तुम केवल जाने में हो सकते हो, ठहरने में नहीं हो सकते। जब तुम्हारी श्वास ठहर जाती है, तब तुम नहीं होते; तुम मिट गए होते हो। अहंकार रह ही नहीं सकता वहां । अहंकार के लिए गति चाहिए। अहंकार के लिए सक्रियता चाहिए । अहंकार के लिए कर्म चाहिए । कुछ हो तो अहंकार बच सकता है; कुछ भी न हो रहा हो तो अहंकार कैसे बचेगा ? अहंकार उपद्रव है। इसलिए अहंकारी शांत नहीं बैठ सकता । मेरे पास अहंकारी आ जाते हैं; वे कहते हैं, ध्यान करना है, शांत बैठना है, लेकिन बैठ नहीं सकते शांत । अहंकारी शांत नहीं बैठ सकता, क्योंकि उसे लगता है कि यह तो समय व्यर्थ गया; इतनी देर में तो कुछ अहंकार की पूंजी कमा लेते, कोई पद पा लेते, कहीं आगे बढ़ जाते, किसी को धोखा दे लेते, कुछ कर लेते, कुछ होता, यह तो बेकार गया । अहंकार के लिए ध्यान से ज्यादा व्यर्थ कोई चीज मालूम नहीं होती। कुछ व्यर्थ भी कर लेते तो भी कुछ किया तो ! जुआ खेल लेते, ताश खेल लेते, किसी से बकवास कर आते, कुछ किया तो ! थोड़ा साम्राज्य किसी तरह फैलाया तो ! लेकिन ध्यान, कुछ भी न किया, खाली बैठ गए। अहंकार के लिए ध्यान एकदम व्यर्थ बात मालूम होती है, इससे ज्यादा व्यर्थ कोई बात नहीं । पश्चिम में उन्होंने मजाक बना रखा है कि पूरब के लोग आंखें बंद करके अपनी नाभि को देखते रहते हैं। पता नहीं, पागल क्या कर रहे हैं! कुछ करो ! ध्यान है, होने की अवस्था; अहंकार है, करने की अवस्था । दो श्वासों के बीच में जब कुछ भी नहीं होता, तब तुम भी नहीं होते । काम और भक्ति के बीच में जब विराम पड़ता है, तब भी तुम नहीं होते; यह काल संध्याकाल है। रात जब तुम सोने जाते हो - जागरण जा चुका, नींद आई नहीं, क्षणभर को फिर विराम आता है, जब तुम न तो कह सकते हो जागे हो, न कह सकते हो सोए हो—आधे-आधे, मध्य में खड़े, देहरी पर खड़े । बाहर जाना बंद है, बाजार नहीं है; भीतर अभी गए नहीं; बीच में खड़े, फिर संध्याकाल आया, उसी संध्याकाल में अगर डूब जाओ तो जो पाने योग्य है, वह पा लिया जाता है। जो होने योग्य है, वह आदमी जाता है। जीवन में इन संध्याकालों को ही वास्तविक द्वार कहा है । इसलिए हमने प्रार्थना 207
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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