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कुछ खुला आकाश !
जैसा भी कुछ है। कामना बाहर जाती हुई, बहिर्मुखी ऊर्जा है।
साधना, प्रार्थना, भक्ति — कोई नाम दो — भीतर जाती ऊर्जा है, जिसे याद भी न रहा कि बाहर है, जिसे खयाल भी न रहा कि बाहर जैसी भी कोई चीज है। कामना बाहर, प्रार्थना भीतर; दोनों अतियां हैं। प्रेम दोनों के मध्य में है, के बीच में है । जैसे कोई अपनी देहली पर खड़ा हो- -न बाहर जा रहा है, न भीतर जा रहा है, ठिठक गया हो; जैसे कोई दोनों तरफ देख रहा हो, बीच में खड़ा हो।
दोनों
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प्रेम मध्य बिंदु है प्रार्थना और कामना के बीच में ।
काम हार गया है, प्रार्थना अभी पैदा नहीं हुई । कामना व्यर्थ दिखाई पड़ने लगी है, सार्थक का अभी उदय नहीं हुआ। यात्रा जैसे थम गई है। प्रेम एक ठिठकी अवस्था है। बाहर जाने जैसा नहीं लगता; हार गए वहां ; राख ही राख पाई, मुंह का स्वाद सिर्फ बिगड़ा और कुछ भी न हुआ; और भीतर का अभी कुछ पता नहीं है। एक बात पक्की हो गई, बाहर व्यर्थ हो गया और भीतर के द्वार अभी खुले नहीं । बीच में ठिठककर खड़ी हो गई जो ऊर्जा है, वही प्रेम है।
अगर तुमने जल्दी न की प्रेम को प्रार्थना बनाने की तो फिर कामना बन जाएगा। प्रेम के क्षण जब भी आएं तो दो ही संभावनाएं हैं; ऊर्जा ज्यादा देर तक ठिठकी न रहेगी, क्योंकि ठिठका होना इस जगत की व्यवस्था नहीं है । कोई ऊर्जा ठहरी नहीं रह सकती; या तो जाएगी बाहर, या जाएगी भीतर - जाना पड़ेगा ।
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-ऊर्जा यानी गति, गत्यात्मकता ।
तो एक क्षण को ठहर सकती है। उस ठहरे क्षण का उपयोग कर लो तो प्रेम भक्ति बन जाता है, या प्रार्थना बन जाता है। अगर उपयोग न करो तो प्रेम फिर कामना बन जाता है, फिर वासना बन जाता है।
इसलिए प्रेमी की बड़ी पीड़ा है। और पीड़ा यही है कि बहुत बार ठिठक आ जाती है और फिर-फिर ऊर्जा बाहर चली जाती है । प्रेम के बहुमूल्य क्षण का उपयोग करना बहुत थोड़े लोग जानते हैं। जो प्रेम के बहुमूल्य क्षण का उपयोग कर लेते हैं, उनके भीतर प्रार्थना का उदय हो जाता है।
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अब इसे खयाल में ले लेना : काम अर्थात बाहर; प्रार्थना अर्थात भीतर; प्रेम यानी दोनों के मध्य में । और चौथी अवस्था है, दोनों के पार । चौथी अवस्था यानी
परमात्मा ।
इसलिए जीसस ने कहा है कि प्रेम जैसा है परमात्मा। ऐसा नहीं कहा है कि ठीक प्रेम ही बस परमात्मा है— नहीं तो परमात्मा की तो बात भी उठाने की जरूरत न रहे - प्रेम जैसा है। एक स्वभाव, एक समानता प्रेम और परमात्मा में है । प्रेम दोनों
मध्य में है, परमात्मा दोनों के पार है। प्रेम बाहर और भीतर के बीच में है, परमात्मा बाहर और भीतर के ऊपर है।
इस जीवन के हमारे जितने अनुभव हैं, उनमें प्रेम सर्वाधिक सूचक है परमात्म
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