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उपशांत इंद्रियां और कुशल सारथी को उपलब्ध हो जाएंगे। मरेंगे हम सब, सौभाग्यशाली हैं वे, जो स्वयं मृत्यु में प्रविष्ट हो जाएंगे। मौत सबकी आएगी, लेकिन वह दुर्घटना होगी। अगर तुम मौत में अपनी स्वेच्छा से प्रविष्ट हुए, अगर तुमने अपने होने को अपने हाथ से मिटा डाला, पोंछ डाला, अगर तुमने अपने अहंकार को अपने हाथ से उतारकर रख दिया और तुमने न-कुछ होने की हिम्मत की, तो महामृत्यु घटेगी।
बुद्धत्व का जन्म तो महामृत्यु में होता है, इसलिए बुद्ध का जन्म हुआ, यह कहना गलत। बुद्ध का कभी जन्म होता ही नहीं, मृत्यु ही होती है; उसी मृत्यु में से आविर्भाव होता है। और फिर बुद्ध कुछ बोले हों, यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि बुद्धत्व का सारा स्वभाव अबोल का है, मौन का है, शून्य का है, शांत का है।
ठीक कहते हैं झेन फकीर। फिर भी पूजा करते हैं इस आदमी की, जो नहीं हुआ। पूजा करते हैं इस आदमी की, इसके शास्त्रों का वाचन करते हैं रोज मंदिर में, जिसने कभी कुछ नहीं कहा। इसके वचनों का मूल्य ही इसीलिए है कि इसके पास कहने को कुछ भी नहीं था, सिर्फ शून्य था। शब्दों का सहारा लेकर शून्य के पक्षी उड़ाए। शब्दों की सीमा बांधकर शून्य के फूल खिलाए।
शब्दों की सीमा जरूरी पड़ती है, क्योंकि तुम शब्द ही समझ पाओगे, तुम शून्य न समझ पाओगे। ___ मैं तुम्हारी तरफ शून्य फेंकू-फेंक रहा हूं-वह तुम्हारी झोली में नहीं पड़ता। शून्य को पकड़ने की झोली तुम्हारी तैयार नहीं। शून्य की झोली अर्थात ध्यान, वह तैयार नहीं। शब्द फेंकता हूं, तुम्हारी झोली में पड़ जाते हैं। शब्द की मछलियां तुम्हारे जाल में अटक जाती हैं। शून्य की मछलियां तुम्हारे जाल से बाहर सरक जाती हैं।
लेकिन शब्द की इन मछलियों में अगर तुमने गौर किया, अगर इन शब्द की मछलियों में तुमने खोजा, अगर शब्द की इन मछलियों में तुमने झांका, तो कहीं-कहीं अटके हुए शून्य को भी तुम पाओगे।
जैसे आंगन में भी आकाश है, छोटे से घड़े में भी आकाश है, ऐसे शब्द में भी शून्य है। वह शून्य ही तुम्हें मिल जाए, इतना ही शब्द का उपयोग है।
बुद्ध पुरुष, अर्हत पुरुष, सम्यक ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति करते हैं, लेकिन उनका करना कर्ता के भाव से शून्य है। वहां करने वाला कोई भी नहीं है।
बुद्ध ने कहा है, मैं चलता हूं, लेकिन चलने वाला कोई भी नहीं है। मैं बोलता हूं, लेकिन बोलने वाला कोई भी नहीं है। मैं भोजन करता हूं, लेकिन भोजन करने वाला कोई भी नहीं है। ___ यह जरा अड़चन की बात है, तर्क के बाहर हो जाती है; समझ में नहीं आती। समझने की जरूरत भी नहीं है। ध्यान रखना, धर्म वहीं शुरू होता है, जहां तुम समझ के ऊपर उठने के लिए राजी हो जाते हो। जब तक समझ है, तब तक कुछ और होगा। समझ की सीमा जहां आती है, वहीं से धर्म की सीमा शुरू होती है।
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