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________________ उपशांत इंद्रियां और कुशल सारथी सुंदर व्रतधारी ऐसा ही व्यक्ति है, जो संसार में हो और संसार जिसमें न हो-कमलवत। 'पृथ्वी के समान नहीं क्षुब्ध होने वाला, इंद कील के समान अकंप होता है।' तुम तब तक कंपित होते ही रहोगे, जब तक तुम्हारी कोई मांग है। जब तक तुम्हारी कोई आकांक्षा है, जब तक तुम कुछ बाजार से खरीदना चाहते हो, तब तक तुम कंपित होते ही रहोगे। तुमने कभी देखा, उसी बाजार से तुम कई बार निकलते हो, अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग ढंग से निकलते हो। कभी तुम निकलते हो फुरसत से तो हर खिड़की, हर द्वार के सामने, हर दुकान के सामने रुककर एक नजर डाल लेते हो—क्या है! कहां क्या बिक रहा है! कहां क्या हो रहा है! न भी खरीदना हो तो भी खरीदने की आकांक्षा पैदा करते हुए बाजार से गुजरते हो। __ कभी तुमने देखा कि तुमने उपवास किया हो तो उसी बाजार से गुजरते हो, लेकिन अब जूते की दुकानें नहीं दिखाई पड़ती, अब सिर्फ मिठाई की दुकानें दिखाई पड़ती हैं। तुम बदल गए, सड़क वही है। अब तुम्हें वही दिखाई पड़ता है, जो तुम्हारी मांग है; जो तुम्हारी अतृप्ति है। ___ कभी तुमने देखा, उसी बाजार से निकलते हो, घर में आग लग गई, भागे चले जा रहे हो। कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। बाजार वही है, दुकानें लगी हैं, न अब जूते की दुकान दिखाई पड़ती है, न कपड़े की, न मिठाई की; कुछ नहीं दिखाई पड़ता। रास्ते पर कोई जय राम जी भी करे तो भी सुनाई नहीं पड़ता। कोई कुछ कहे, समझ में नहीं आता। बाजार में इतना शोरगुल मचा हुआ है, तुम उसमें से ऐसे निकल आते हो, जैसे कुछ भी नहीं छूता-घर में आग लगी है। यह कोई फुरसत का वक्त थोड़े ही है! कल अगर कोई आदमी तुमसे कहेगा कि रास्ते पर मिले थे, तो तुम पहचान न पाओगे, तुम याद न कर पाओगे। याद भी न बनी। इतनी भी लकीर न छूटी। ___यास की बस्ती में इक छोटी सी उम्मीदे-विसाल अजनबी की तरह से फिरती है घबराई हुई यह जो आकांक्षाओं का संसार है, इसमें कुछ पाने की आशा, किसी से मिलने की आशा, कुछ भोग की आकांक्षा, एक अजनबी की तरह फिरती है घबराई हुई। इसलिए तुम इतने कंपित हो, इतने परेशान हो। भीतर तुम कंप ही रहे हो पूरे समय। जब तक वासना है, तब तक कंपन होगा। अगर अकंप होना हो और अकंप हुए बिना, होना होने जैसा नहीं है तो यह जो वासना भटकाती है एक अजनबी की तरह, द्वार-द्वार पर भिखारी की तरह भटकाती है, इस वासना के स्वरूप को समझ लेना होगा। इस वासना के स्वरूप को खूब गहरी आंख से देखना होगा। इसे आंख गड़ाकर देखना, इसके आर-पार देखना, तुम वहां कुछ भी न पाओगे। तुमने अब तक देखा ही नहीं, इसलिए तुम उलझे हो; देखते ही तुम मुक्त हो जाओगे। 189
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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