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एस धम्मो सनंतनो
लेते हो मंदिर में कि रोज घर साफ करेंगे, कचरा-कूड़ा बाहर फेंकेंगे? कचरा-कूड़ा है, इसे तुम फेंकोगे नहीं तो करोगे क्या? इसका अगर तुम व्रत लेने जाओगे तो लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे, मामला क्या है, दिमाग खराब हुआ? कचरा-कूड़ा फेंकना ही पड़ता है, इसमें व्रत क्या है?
व्रत तो तुम तभी लेते हो, जब तुम कहते हो, सोने का त्याग करेंगे। अब समझना; अगर सोना कचरा-कूड़ा हो गया तो व्रत लेने की जरूरत नहीं; तब सुंदर व्रत का जन्म होगा। तुम सुंदर व्रतधारी हो जाओगे। व्रतधारी रहोगे, व्रत लेने वाले नहीं। व्रत धारण करोगे, मगर वह धारणा अंतर से जन्मेगी। किसी बाहर, किसी के सामने, किसी के अनुमोदन, किसी की तारीफ-प्रशंसा का सवाल नहीं है। इसके लिए कोई बाहर प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है, तुम्हारी अंतःप्रज्ञा काफी प्रमाणपत्र है। चुपचाप तुम अपनी समझ को जीयोगे। धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन में एक सौंदर्य बजने लगेगा। तुम्हारी बीन बजने लगेगी।
'सुंदर व्रतधारी, तादि पृथ्वी के समान नहीं क्षुब्ध होने वाला।'
पृथ्वी जैसे अक्षुब्ध बनी रहती है, थिर बनी रहती है, ऐसा थिर होता है। कोई भी चीज उसे क्षुब्ध नहीं कर पाती।
'और इंद कील के समान अकंप होता है।'
जिस कील पर पृथ्वी घूमती है—सारी पृथ्वी घूमती रहती है, लेकिन कील तो ठहरी रहती है। जैसे गाड़ी के चाक में कील होती है, सारा चाक घूमता रहता है, गाड़ी चलती रहती है, कील ठहरी रहती है। जीवन चलता रहता है, चाक चलता रहता है, लेकिन भीतर सब ठहरा रहता है। ___ अब जिनको तुम त्यागी कहते हो, वे ऐसे हैं, जिन्होंने चाक का त्याग कर दिया, कील ही रह गए। कील का क्या मजा, जो चाक में न हो! कील कील ही कहां, जो चाक में न हो! यात्रा ही टूट गई। फिर अगर कील न घूमती हो तो न घूमने का सार क्या? गाड़ी चलती रहे, चाक घूमता रहे, कील न घूमे। कील घूमेगी तो गाड़ी बिखर जाएगी, गिर जाएगी, टूट जाएगी, चाक गिर जाएगा, चल न पाएगा। __सब घूमने वाली चीजें किसी न घूमने के सहारे चलती हैं। गति का आधार अगति है। इस सारे संसार के घूमने का आधार उस परमात्मा में है, जो नहीं घूमता। इस तुम्हारे सारे शरीर के घूमने का आधार उस चैतन्य में है, जो ठहरा हुआ है। यह तुम्हारे मन के सारे परिभ्रमण का आधार उस आत्मा में है, जो कभी नहीं घूमती-इंद कील है; उसकी पहचान चाहिए।
चाक को रोकने की जरूरत नहीं है, चाक को चलने दो, मजे से चलने दो, तुम कील के साथ अपना तादात्म्य कर लो। तब तुम संसार में होते हो और संसार तुम में नहीं होता। तब तुम हजार रास्तों पर चलते हो, लेकिन कोई रास्ता तुम्हें विकृत नहीं कर पाता। तब तुम कितनी ही यात्रा करो, यात्रा तुम्हारे जीवन में व्याघात नहीं बनती।
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