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स्थितप्रज्ञ, सत्पुरुष है है। और जिन्होंने शास्त्र से पढ़ा, उन्होंने समझा, कारण है। कारण नहीं है त्याग। त्याग कर-कर के तुम बिलकुल सूख जाओ, हड्डियां हो जाओ, सत्पुरुष न होओगे। भोजन का अभाव तुम्हें पीला कर जाए, लेकिन सत-बोध से उठी हुई स्वर्णिम आभा उससे प्रगट न होगी।
जो-जो पीला है, सभी सोना नहीं है। रोग से भी आदमी पीला पड़ जाता है; उसे पीतल समझना। बोध से भी आदमी के जीवन में स्वर्ण आभा प्रगट होती है, पर वह बात और। उसके सामने सूरज लजाते हैं, शर्माते हैं।
तो ध्यान रखना, त्याग पर जोर बुद्ध पुरुषों का बिलकुल नहीं है; और उनकी हर वाणी में त्याग का उल्लेख है। और जिन्होंने भी पंडितों की तरह शास्त्रों में खोजा है, वे एक अरण्य में खो गए। कितना सुगम है अरण्य में खो जाना!
'सत्पुरुष सभी कुछ त्याग देते हैं।'
कितनी जल्दी मन में खयाल उठता है, सूत्र मिल गया। सभी कुछ त्याग दो, सत्पुरुष हो जाओगे। काश, इतनी आसान बात होती! तब तो जो भिखारी हैं, जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे सत्पुरुष हो गए होते। जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे सत्पुरुष हो गए होते। तुम भी छोड़ दोगे तो तुम्हारे पास भी कुछ नहीं होगा, लेकिन इससे तुम सत्पुरुष न हो जाओगे।
. मैंने सुना है, एक भिखारी एक संदूक वाले की दुकान में चला गया। रंग-बिरंगे संदूक देखकर उसे बड़ा रस आया। वह घूम-घूमकर संदूक देखने लगा। दुकानदार भी दिखाने लगा। कोई और ग्राहक थे भी नहीं। ऐसे तो संदेह लगा कि यह क्या संदूक खरीदेगा! क्योंकि संदूक में रखने के लिए कुछ चाहिए भी। लेकिन कोई ग्राहक था भी नहीं, तो दुकानदार ने उसमें रस लिया, उसे घुमाया, दिखाया। सब देखकर जब वह चलने लगा तो उसने कहा, खरीदेंगे नहीं? उसने कहा, ये किस काम में आते हैं? वह तो रंग, आकृतियां देखकर अंदर चला आया था। उसने पूछा, ये किस काम में आते हैं? उस दुकानदार ने कहा, हद हो गई। कपड़े-लत्ते रखने के काम आते हैं, खरीद लो, कपड़े-लत्ते रखना। तो उसने कहा, कपड़े-लत्ते इसमें रख लेंगे तो पहनेंगे क्या, तेरी ऐसी-तैसी? और तो कुछ है ही नहीं। यही कपड़े-लत्ते हैं, जो पहने हुए हैं।
लेकिन ऐसी अवस्था में भी तो तुम कहीं पहुंच नहीं जाते। नग्न होकर भी तो तुम कहीं नहीं पहुंच जाते। तुम्हारे होने में, तुम्हारे पास क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम दीन हो तो दीन हो, तुम धनी हो तो दीन रहते हो। तुम्हारे पास चीजें हों तो तुम वही हो, चीजें हट जाएं तो तुम वही हो। तुम्हारा होना चीजों पर निर्भर नहीं है।
और तुम्हारे तथाकथित त्यागी भी यही समझाते हैं और तथाकथित भोगी भी यही समझाते हैं। दोनों का भरोसा चीजों में है। भोगी कहते हैं, चीजों को बढ़ाओ तो