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________________ उपशांत इंद्रियां और कुशल सारथी तो अपने से ही आता है। स्वास्थ्य के मार्ग की बाधाएं अलग कर देते हैं, लेकिन स्वास्थ्य को खींचकर तो कोई भी नहीं ला सकता। सिर्फ बीच में कोई अड़चन न रहे, कोई द्वार बंद न रहे, कोई शिला, कोई चट्टान अटकी न रहे, वह हम हटा देते हैं; फिर हम प्रतीक्षा करते हैं। इसलिए ठीक-ठीक चिकित्सक सदा प्रार्थनापूर्ण होता है। और जो प्रार्थनापूर्ण होता है, वही ठीक चिकित्सा कर पाता है। क्योंकि स्वास्थ्य सिर्फ बीमारी का अलग हो जाना नहीं है, बीमारी के अलग हो जाने पर कुछ घटता है अनहोना; उतरता है कुछ पार से। स्वास्थ्य की कोई व्याख्या नहीं है, स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं है। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही कह सकते हैं कि बीमार तुम न रहो तो तुम तैयार हो स्वास्थ्य के लिए; फिर शेष सब उसके हाथ में है। 'जिसकी इंद्रियां शांत हो गई हैं।' और ध्यान रखना, बड़ी महत्वपूर्ण सूचना बद्ध इसके बाद देते हैं। 'सारथी द्वारा दान्त किए गए घोड़े के समान जिसकी इंद्रियां शांत हो गई हैं, वैसे अहंकाररहित...।' जिसने शांत की हैं, वह कभी अहंकाररहित हो ही नहीं सकता। उसको शांत करने का अहंकार पकड़ लेता है कि मैंने इंद्रियां शांत कर दी। मैं त्यागी, मैं आत्मविजयी, मैं यह, मैं वह। जिसने इंद्रियों को शांत कर दिया जबरदस्ती, जिसने त्याग कर दिया जबरदस्ती, वह हिसाब गुनता रहता है भीतर, कितने लाख छोड़ दिए। पहले गिनता था, इकट्ठे करता था; अब छोड़ दिए तो भी गिनता है; गिनती जारी रहती है। कितने उपवास कर लिए, हिसाब रखता है। अगर परमात्मा ऐसे कभी मिला तो अपने पूरे खाते-बही यह सामने रख देगा कि देखो। इसके मन में धन्यवाद शायद ही हो, शिकायत भला हो; यह कहेगा, इतना किया और तुमने इतनी देर लगा दी? न्याय नहीं मालूम होता। और लुच्चे-लफंगे और बेईमान सब मजा कर रहे हैं। . मेरे पास पुराने ढब के संन्यासी आ जाते हैं, वे यही मुझे सदा कहते हैं कि यह क्या है ? अन्याय हो रहा है। साधु पुरुष दुख पा रहे हैं, असाधु मजा कर रहे हैं। ___ मैं उनसे कहता हूं, अगर तुम साधु हो तो तुम ही मजा कर रहे होओगे; कोई असाधु मजा कर नहीं सकता। वह असाधु कैसे मजा कर लेगा? अगर असाधु मजा कर रहा है तो.तुम नाहक चूक रहे हो, तुम असाधु हो जाओ। साधु का अर्थ ही यह है कि वह आखिरी मजा ले रहा है। ____ मैं साधु को परम भोगी कहता हूं। जिनको तुम भोगी कहते हो, वे बड़े त्यागी हैं। परमात्मा को छोड़ रहे हैं, कूड़ा-करकट इकट्ठा कर रहे हैं। इनको तुम भोगी कहते हो? परम धन को छोड़ रहे हैं, ठीकरे इकट्ठे कर रहे हैं; इनको तुम भोगी कहते हो? समाधि को छोड़ रहे हैं, संभोग को पकड़े बैठे हैं; इनको तुम भोगी कहते हो? ये 183
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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