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उपशांत इंद्रियां और कुशल सारथी
ही लाश से। इंद्रियां मार डाली, मालकियत नहीं हुई। परमात्मा नहीं मिला है, संसार खो गया है। ___ इसे मैं फिर दोहरा दूं। संसार का खो जाना ही परमात्मा का मिलना नहीं है, यद्यपि परमात्मा का मिलना जरूरी रूप से संसार का खो जाना है। संसार खो गया है, संसार छोड़ दिया है, जबरदस्ती की है, लेकिन परमात्मा इसके हृदय की खिड़की से झांका नहीं। अन्यथा जैसे सूर्योदय हो, ऐसी इसके भीतर कोई ज्योति तुम्हें दिखाई पड़ती। इसके शब्द-शब्द में गीत होता, इसके उठने-बैठने में एक और ही हवा होती, किसी और ही लोक की खबर होती। इसका व्यक्तित्व गाता हुआ होता, जैसे एक मस्ती छाई हो। बिन पीए जैसे पूरी मधुशाला पी गया हो। एक खुमार, ऐसा कि जिसकी गहराई न आंकी जा सके; एक ऐसी मस्ती, जिसको समझने-समझाने का कोई उपाय न पाया जा सके; ऐसी अतयं खुशी, जिसका बाहर कोई कारण न दिखाई पड़ता हो; जो भीतर से ही आती हो और भर-भर जाती हो। तुम इस व्यक्तित्व में झरने पाते। लेकिन वैसा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। - कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर में दिखाई पड़ा है, लेकिन उनके पीछे चलने वाले में दिखाई नहीं पड़ता। कहीं कोई चूक हो रही है। चूक यही हो रही है कि जो बुद्धों ने कहा है, उसकी बड़ी गलत व्याख्या हो गई है। और गलत इसलिए हो गई है कि जो सरल था, जो हम कर सकते थे, वह हमने कर लिया है। यह बहुत ही
आसान है। घोड़े के ऊपर कोड़े बरसा देने से आसान और क्या होगा? बड़ी तृप्ति मिलती है।
लोग दुष्ट हैं। अभी दूसरों के साथ दुष्ट हैं, वही दुष्टता अपने पर लगा देने में बड़ी देर नहीं लगती। अभी दूसरों को सताने में मजा लेते हैं, फिर इसी प्रक्रिया को अपने पर थोप लेने में कोई ज्यादा अड़चन नहीं आती। प्रक्रिया तो सधी-सधाई है, सिर्फ थोड़ी सी दिशा बदलनी होती है। हिंसा औरों के साथ बंद हो जाती है, अपने साथ शुरू हो जाती है। . तुम अपने मंदिरों में, अपनी मस्जिदों में, अपने गुरुद्वारों में न मालूम किस-किस तरह के हिंसक लोगों की पूजा कर रहे हो। तुम जरा गौर से देखो, वे कर क्या रहे हैं? जो तुमने दूसरों के साथ किया है, वही वे अपने साथ कर रहे हैं। तुम दूसरों पर क्रोधी हो, वे खुद पर क्रोधी हैं। __ तुम्हारे क्रोध का पता चल जाता है, क्योंकि दूसरा क्यों बरदाश्त करे? उनके क्रोध का पता नहीं चलता, क्योंकि वहां कोई दूसरा है नहीं, खुद ही हैं। अपने को कोई सताए तो शिकायत भी किससे करे? शिकवा भी क्या हो? अपने को ही सताए तो कहने किससे जाए? और जब इस सताने के आधार पर पूजा मिल जाती हो, चरणों में फूल चढ़ने लगते हों, सिर झुकने लगते हों, तो अहंकार को मजा आ जाता है।
अहंकार ही हिंसा का सूत्र है।
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