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उपशांत इंद्रियां और कुशल सारथी
पाने के लिए कुछ भी नहीं करना है, यह मिला ही हुआ है। सिर्फ तुम इसे भूलने के लिए इसकी तरफ पीठ किए जो-जो कर रहे हो, वह रुक जाए, तो तुम सन्मुख हो जाओ। विमुख होना रुक जाए तो तुम सन्मुख हो जाओ ।
इसलिए सारे बुद्ध पुरुष इंद्रियों की, वासनाओं की दौड़ से तुम्हें छूटने को कहते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि इंद्रियों की वासनाओं में कुछ खराबी है; कुछ भी नहीं है वहां, सपना है; न कुछ खराबी है, न कुछ भलाई है; वहां कुछ है ही नहीं — ख्वाब है, कल्पना है ।
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लेकिन तुम्हें बड़ी गलत बातें समझाई गई हैं । तुम्हें यह समझाया गया है कि इंद्रियों में कुछ खराबी है, इसलिए उनसे मुक्त हो जाओ। इंद्रियों में कुछ भी खराबी नहीं है, सिर्फ धोखा है, मृग मरीचिका बस, ज्यादा से ज्यादा । दिखाई पड़ता है कि दूर सरोवर है, है नहीं । उस दिखाई पड़ने वाले सरोवर में कोई भी खराबी नहीं है, सिर्फ भ्रमजाल है। इसलिए जिन्होंने जाना, उन्होंने इसे माया कहा है।
माया का अर्थ होता हैः जो मालूम होती है और है नहीं । अब जो है ही नहीं, उसमें खराबी क्या होगी? खराबी होने के लिए तो होना जरूरी है।
इंद्रियों में कुछ खराबी नहीं है। अगर तुमने इंद्रियों में खराबी देखकर उन्हें छोड़ा तो तुम कभी छोड़ ही न पाओगे। क्योंकि तुम खराबी मानकर चले, इसका अर्थ है कि तुमने इंद्रियों के यथार्थ को स्वीकार कर लिया कि वे हैं। तुम अगर बाजार से डरकर भागे तो बाजार की याद तुम्हें सताती रहेगी; फिर पहाड़ तुम्हें बाजारों से मुक्त न कर पाएंगे। हिमालय की भी वैसी सामर्थ्य नहीं । तुम जहां भी जाओगे, बाजार तुम्हारे साथ हीं रहेगा। और ध्यान रखना, कल्पना के बाजार और भी मधुमय मालूम होते हैं, और भी मधुर, और भी मंदिर ।
एक तो सभी बाजार कल्पना के हैं। बाहर के बाजार ही कल्पना के हैं। जब तुम आंख बंद करके उन कल्पना के बाजारों को देखते हो तो उनमें और हजार रंग जुड़ जाते हैं, हजार सुगंधें आ जाती हैं।
इसलिए तो एक मजे की घटना घटती है रोज, पर तुम पकड़ नहीं पाते, कि जो चीज तुम्हारे पास नहीं होती, बड़ी सुंदर मालूम होती है, हाथ में आते ही उतनी सुंदर नहीं रह जाती। जिस महल के लिए तुम वर्षों तड़फे थे, बन जाने पर अचानक तुम थके से खड़े रह जाते हो । अब क्या करना है ? जिस कार के लिए तुम पागल होकर दौड़े थे, पोर्च में आकर खड़ी हो जाती है, तुम भी थके से खड़े रह जाते हो; अब क्या करना है ? जो सौंदर्य मालूम पड़ा था, जो सुख की आशा बंधी थी, हाथ में आते ही खोने लगती है। मृग-मरीचिका दूर से ही दिखाई पड़ती है, पास आने पर मिट जाती है।
तो पहला सूत्र तो यह खयाल रखो कि देखने के लिए दूरी जरूरी है; पास जो है, वह भूल जाता है।
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