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उपशांत इंद्रियां और कुशल सारथी
भरे बाज, गठीले जिस्म, चौड़े आहनी सीने बिलखते पेट, रोती गैरतें, सहमी हुई आहे यहां हर चीज बिकती है, खरीददारो
बताओ क्या खरीदोगे? सभी कुछ बिक रहा है—सिर्फ एक तुम को छोड़कर। सभी कुछ दुकानों में सजा है—सिर्फ एक तुम को छोड़कर।
सभी कुछ बाजार में उपलब्ध है—सिर्फ एक तुम हो कि बाजार में तुम उसे न पा सकोगे। सिर्फ एक तुम हो कि तुम उसे बाहर कहीं भी न पा सकोगे। सिर्फ एक तुम हो, जो बाजार के बाहर हो। सिर्फ एक तुम हो, जो कमोडिटी नहीं; अन्यथा सब चीजें बाजार में हैं, अन्यथा सभी चीजें अर्थशास्त्र हैं। सिर्फ एक तुम हो, जो अर्थशास्त्र के हिस्से नहीं। ___इसलिए मार्क्स ने-कम्यूनिजम के जन्मदाता ने तुम्हें स्वीकारा ही नहीं; उसने कहा, आदमी के पास कोई आत्मा नहीं है। क्योंकि जो बाजार में न बिक सके, वह उसकी समझ के बाहर है। वस्तुएं समझ में आती हैं, आत्मा समझ में नहीं आती। क्योंकि जिसका मूल्य हो सके, उसकी ही समझ हो सकती है! आत्मा का क्या मूल्य है? ___ मार्क्स ने जीवन के सारे पहलुओं पर बड़ी ठीक-ठीक दृष्टि दी है, लेकिन सारी दृष्टि भ्रांत हो गई, क्योंकि बुनियाद गलत हो गई। सिर्फ एक बात को इनकार कर गया-आत्मा। आत्मा को उसे इनकार करना ही पड़ेगा। वह शुद्ध अर्थशास्त्री है, इकोनामिस्ट है। आत्मा को जगह नहीं है वहां। ___ अर्थ के पार है धर्म। बाजार के पार हो तुम। जहां वस्तुओं की दौड़ समाप्त होती है, वहीं अपनी खोज शुरू होती है। __ और जब तक तुम वस्तुएं मांगते रहोगे—फिर चाहे वे वस्तुएं तुमने जाकर मंदिर में परमात्मा से ही क्यों न मांगी हों, तुम बाजार की ही मांग कर रहे हो। फिर वे वस्तुएं चाहे तुमने स्वर्ग में ही क्यों न मांगी हों, न मांगी हों इस पृथ्वी पर, इससे भेद नहीं पड़ता। बाजार कहीं के भी हों, जमीन के हों कि इंद्रपुरी के हों, इससे क्या भेद पड़ता है? बाजार बाजार है।
जब तक तुम्हारी समझ में एक बहुत बुनियादी खयाल नहीं आ गया है कि जानने योग्य मैं हूं, पाने योग्य मैं हूं, खोजने योग्य मैं हूं; फिर शेष सब खोज लेंगे इसके बाद। अपना तो ठीक-ठीक पता हो जाए कि मैं कौन हूं? कहां से हूं? क्या हूं? मालिक का तो पता लगा लं, फिर मालकियत भी खोज लेंगे। सम्राट की तो थोड़ी पहचान कर लें, फिर साम्राज्य भी खोज लेंगे।
और मजे की बात यह है कि जिसने स्वयं को पाया, वह इस पाने में ही सभी कुछ पा लेता है, सभी खोज पूरी हो जाती है।
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