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अंतश्चक्षु खोल कोई आदत महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण बन जाती है, अगर मालिक हो जाए; खतरनाक हो जाती है। और मजा यह है कि अगर तुम अपनी आदत के मालिक हो तो बहुत सी आदतें अपने आप छूट जाएंगी। छोड़ना न पड़ेंगी। क्योंकि वे व्यर्थ हैं।
धूम्रपान पाप नहीं है, मूढ़तापूर्ण है । पाप मैं नहीं कहता । पाप क्या है उसमें ? एक आदमी धुएं को भीतर ले जाता है, बाहर लाता है, इसमें पाप है ? थोड़ा सोचो भी तो ! धुएं की माला फेर रहा है, इसमें पाप कहां हो सकता है ? मूढ़ता समझ में आती है कि मूढ़ है । नाहक ही फेफड़ों को खराब कर रहा है। इतनी स्वच्छ हवाएं मौजूद हैं.
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और जब तक मौजूद हैं, ले लो; जल्दी ही धुआं ही धुआं हो जाने वाला है। इतनी ताजी हवाएं मौजूद हैं, अगर फेफड़ों का ही ज्यादा अभ्यास करना है, प्राणायाम करो, स्वच्छ हवाओं को भीतर ले जाओ; सुवासित हवाओं को भीतर ले जाओ, उनकी माला जपो; रोग भीतर ले जा रहे हो! पाप कुछ भी नहीं है, मूढ़ता है। पाप कहना बहुत बड़ा शब्द हो गया। इतनी छोटी बात के लिए पाप नहीं कहना चाहिए।
और ऐसी छोटी-छोटी बात के लिए लोग नर्क में सड़ाए जाएं, यह भी जरा जंचता नहीं। पहले इन ने गलती की, अब भगवान कर रहा है। पहले ये धुएं में पड़े रहे, अब भगवान इनको धुएं में डाल रहा है, आग में उतार रहा है। यह कुछ जरा जरूरत से ज्यादा मामला हो गया। बड़ी निर्दोष सी मूढ़तापूर्ण बात है। पकड़ उसकी इसमें है कि तुम उससे छूट नहीं पाते, मालिक नहीं हो ।
और तब मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम बुरी आदतों के मालिक नहीं हो तो वे तो बुरी हैं ही; अच्छी आदतों के भी अगर तुम मालिक नहीं हो तो वे भी बुरी हैं। अगर ऐसा है कि तुम्हें रोज प्रार्थना करनी ही पड़ेगी; कि तलफ लगती है, कि न की प्रार्थना, तो दिनभर ऐसा लगता है, कुछ चूक गए, कुछ खाली हो गए। बार-बार याद आती है कि करो। तो यह प्रार्थना भी धूम्रपान हो गई। यह आदत जरा बड़ी हो गई, तुम से बड़ी हो गई ।
कोई आदत तुम से बड़ी न हो। मजे से प्रार्थना करो, लेकिन मालिक तुम ही रहो। किसी दिन न करनी हो तो ऐसा न हो कि आदत करवाए; कि करना पड़ेगी। बस, आदत तुम्हारी मालकियत न अपने हाथ में ले ले; फिर कोई चिंता नहीं। मजे की बात यह है कि जैसे ही तुम मालिक हुए, व्यर्थ आदतें अपने आप छूट जाएंगी। क्योंकि उनको करने का कोई अर्थ ही न रहा । वे तुम इसीलिए करते थे कि तुम मालिक न थे और आदत तुम्हें मजबूर करती थी कि करो और तुम्हें करनी पड़ती थी ।
तलफ का मतलब क्या होता है? मजबूरी ! एक बेतहाशा जोर उठता है भीतर कि पीओ सिगरेट ! न पीओ तो मुसीबत, पीओ तो मुसीबत । पीओ तो पाप कर रहे हो, न पीओ तो यह बेचैनी पकड़ती है, सारा शरीर जकड़ता है। कुछ मन नहीं लगता, कुछ करने में मन नहीं लगता। एक झंझट खड़ी हो गई है।
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