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एस धम्मो सनंतनो निराशावादी हैं।
नहीं, बद्ध तो केवल सत्य कह रहे हैं; जैसा है, वैसा कह रहे हैं; निराशावादी नहीं। बुद्ध के चेहरे पर निराशा की छाया भी नहीं है। आशा की रुग्ण चमक भी नहीं है, निराशा की अंधेरी छाया भी नहीं है। बुद्ध बिलकुल शांत हैं; न आशा है, न निराशा है। इस घड़ी में ही अंतर्यात्रा शुरू होती है।
मेरी शिकस्त मेरी फतह का रसूल बनी मेरी शिकस्त ही तो इदराक का उसूल बनी
आखिरी प्रश्न:
कल आपने कहा कि आदतों को ही ग्रंथि कहा गया है, जो जीवन को जकड़ लेती हैं। क्या आदत और आदत में भेद नहीं? वैसे तो चलने से लेकर लिखने तक आदतें ही हैं; फिर क्या सभी आदतें जड़ता लाती हैं? और क्या संभव है कि सबसे मुक्त हुआ जाए?
आदत जड़ता नहीं लाती, आदत तुम्हारी मालिक हो जाए तो जड़ता लाती है।
आदत को छोड़ना नहीं है, आदत के ऊपर उठना है, अतिक्रमण करना है। तुम जो करो, उसमें मालकियत तुम्हारी रहे। आदत का उपयोग करो, खूब करो, करना ही पड़ेगा। आदत उपकरण है, साधन है।
तो पहली तो बात यह खयाल में ले लेना, बोलोगे तो आदत है, उठोगे तो आदत है, चलोगे तो आदत है, लेकिन यह ध्यान रहे कि मालिक कौन है? अगर चलने की आदत के कारण चल रहे हो और तुम्हें चलना नहीं है। तुम कहते हो, हे भगवान! बचा, चलना नहीं है, लेकिन आदत है तो चले; क्या करें? धूम्रपान करना नहीं है, लेकिन कर रहे हैं, क्या करें? आदत है! बचाओ।
आदत मालिक हो-बस, तो जड़ता लाती है। तुम आदत के मालिक होओ, फिर कोई हर्जा नहीं; फिर कोई बात ही नहीं। फिर तुम्हें धूम्रपान करना हो तो मजे से करो। न करना हो, न करो। इतना ही ध्यान रहे कि तुम मालिक हो।
मैं नहीं कहता कि धूम्रपान छोड़ो; बात ही फिजूल है। धूम्रपान से कुछ नहीं मिलता, छोड़कर क्या मिलेगा? अगर छोड़कर कुछ मिल सकता है तो पीकर भी कुछ मिल ही रहा होगा। तब तो धूम्रपान बड़ा मूल्यवान है। कुछ लोगों ने तो ऐसा बना रखा है कि धूम्रपान छोड़ दोगे तो भगवान मिल जाएगा। काश, इतना सस्ता होता मामला! जो नहीं कर रहे हैं धूम्रपान, उनको क्या मिल गया है ?
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