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________________ अंतश्चक्षु खोल __ मेरी शिकस्त! मेरी हार, मेरी पराजय, मेरा संसार में व्यर्थ हो जाना, मेरी गहन निष्फलता मेरी शिकस्त मेरी फतह का रसूल बनी वही मेरी विजय का पैगंबर बन गई—अंतर्विजय का। ___ मेरी शिकस्त ही तो इदराक का उसूल बनी और बाहर का हार जाना ही तो भीतर के ज्ञान का आधार बना, सार-सूत्र बना, उसूल बना। इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं, बाहर से भागने की जल्दी मत करना; हार ही जाओ। एक बार हार ही लो, एक बार बुरी तरह पराजित हो जाओ, एक बार इस तरह हारो कि आशा जरा भी न बचे। आशा का जरा सा भी सूत्र बच जाए तो तुम भीतर न जा सकोगे। तुम एक खूटे को बाहर पकड़े ही रहोगे। तुम कहोगे, अभी शायद कुछ और हो सकता है। शायद कल...आज नहीं हुआ, कल...परसों; थोड़ा और प्रयास कर लें, थोड़ी और चेष्टा कर लें; जल्दी क्या है? - जब सभी आशा अस्त हो जाती है-अब यह जरा समझना होगा-जब सभी आशा अस्त हो जाती है तो तुम्हारे मन में खयाल उठेगा, तब तो बड़ी निराशा हो जाएगी। बारीक बात है! जब सभी आशा अस्त हो जाती है तो तुम निराश नहीं होते, क्योंकि निराशा तो आशा के कारण ही होती है। जितनी तुम आशा बांधते हो, जितनी तुम आस बांधते हो, उतने ही निराश होते हो। जब-जब आशा हारती है, तब-तब निराश होते हो। जब आशा इस भांति हार जाती है कि जीतना संभव ही नहीं है, होता ही नहीं। जब तुम इस सत्य को समझ लेते हो कि आशा हारेगी ही; तुम्हारी आशा हारती है, ऐसा नहीं; आशा का हारना स्वभाव है; आशा धोखा है; तब तुम निराश नहीं होते। न आशा बचती है, न निराशा बचती है। आशा के साथ ही निराशा भी चली जाती है। सफलता के साथ ही विफलता भी चली जाती है। अचानक तुम खाली हो जाते हो आशा-निराशा दोनों से। रात-दिन दोनों गए। __ अगर निराशा बची रही तो इसका मतलब है, अभी आशा मौजूद है कहीं। अभी भी तुम निराश हो, इसका मतलब, अभी भी तुम सोच रहे हो, कोई उपाय हो सकता था। अभी भी तुम सोच रहे हो, आशा सफल हो सकती थी। यह मेरी आशा हार गई, इसका यह अर्थ नहीं कि आशा हारती है। यह आशा हार गई, इसका यह अर्थ नहीं कि सभी आशाएं हारती हैं। मैं थोड़े और उपाय करूं, ठीक से करूं, थोड़ी और व्यवस्था से करूं, तो जीत जाऊंगा। इसलिए निराश हो। अगर आशा मात्र का स्वभाव विफलता है तो निराशा का कोई कारण न रहा। बुद्ध को बहुत लोगों ने निराशावादी समझा है। क्योंकि वे कहते हैं, संसार दुख है, जीवन दुख है, जन्म दुख है, मरण दुख है, सब दुख है। लोग सोचते हैं, बुद्ध 159
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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