________________
अंतश्चक्षु खोल
सौ साल की गई प्रार्थनाएं एक छोटी सी आह में समा सकती हैं। अमरीका से एक सत्य का खोजी भारत आया था। वह एक सूफी फकीर की तलाश कर रहा था। कहीं से सुराग मिल गया था। लेकिन सूफियों का पता लगाना जरा कठिन होता है। ढाका के आसपास कहीं फकीर है, ऐसा सुनकर वह ढाका पहुंचा। टैक्सी की, टैक्सी वाले से पूछा कि इस फकीर को जानते हो ?
उसने कहा, कुछ-कुछ।
पहुंचा दोगे उसके पास ?
उस टैक्सी वाले ने कहा, बहुत कुछ तुम पर निर्भर करता है, मुझ पर नहीं । यह थोड़ा चौंका। बात बड़ी सूफियाना मालूम पड़ी। पहले तो कहा कुछ-कुछ, फिर कहा कि तुम पर निर्भर करता है, मेरी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा।
टैक्सी में बैठा। यह आदमी कुछ अजीब सा मालूम पड़ा । रास्ते में इसने पूछा कि क्या तुम भी किसी सूफी के शिष्य हो ? तुम्हारे पास हवा में थोड़ी इबादत है। उस टैक्सी वाले ने वहीं गाड़ी रोक दी और परमात्मा से प्रार्थना की, कि क्षमा कर !
यह आदमी बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है ! उसने पूछा कि बात क्या है ? मैंने कुछ चोट पहुंचा दी ? क्योंकि वह रोने लगा ।
उसने कहा कि प्रार्थना का पता चल जाए दूसरे को तो प्रार्थना खराब हो गई । मेरे गुरु ने यही सिखाया है : भीतर गुनगुनाना । तुम्हें कैसे पता चल गया ?
लेकिन जब कोई प्रार्थना भीतर गुनगुनाता है तो उसके आसपास की हवा बदल जाती है। जब कोई परमात्मा की याद से भीतर भरा होता है तो उसके आसपास की हवा में गंध होती है – एक सुवास, एक ताजगी, जैसे कमल खिल रहे हों भीतर ! दिखाई तो नहीं पड़ते दूसरे को, लेकिन अगर दूसरे ने भी प्रार्थना की हो, थोड़ी भी प्रार्थना की रस्म भी अदा की हो, बहुत गहरे न भी गया हो, उपचार भी पूरा किया हो, थोड़ा बाहर - बाहर से भी पहचान बनाई हो, तो भी उसकी समझ में आ जाएगा। उसने कहा— ड्राइवर ने – कि भूल हो गई, आपको पता चल गया; जरूर कहीं न कहीं छिपा हुआ अहंकार होगा।
निकले खुलूस दिल से अगर वक्ते - नीमशब आधी रात अगर हृदय से भरी हुई आह
इक आह इक सदी की इबादत से कम नहीं
जो मैं तुमसे कह रहा हूं, छोटे-छोटे शब्द हैं। जो मैं तुमसे कह रहा हूं, उसकी सीमा है। लेकिन जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं, उसकी कोई सीमा नहीं । तुम मेरे शब्दों को बहुत जोर से मत पकड़ लेना, अन्यथा उनके प्राण निकल जाएंगे। तुम उन्हें अपने भीतर तो उतरने देना, मुट्ठी मत बांधना, क्योंकि शब्द मर जाते हैं बड़े जल्दी । शब्द बड़े कोमल हैं, बड़े नाजुक हैं, बहुत हिफाजत करना । तुम्हारे विचारों की भीड़ में मेरे शब्द न खो जाएं, अन्यथा तुम्हारे विचार, इसके पहले कि वे तुम तक पहुंचें,
155