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________________ एस धम्मो सनंतनो कितना मनमोहक ! कितना आह्लादकारी और कितना शांतिदायी ! रहगुजर, जिसकी इंतिहा ही नहीं ऐसी राह, जो शुरू तो होती है, लेकिन समाप्त नहीं । शुभ हुआ। एक छोटी सी अंतर्दृष्टि हाथ लगी। इस चिराग को पकड़ो, इस ज्योति को सम्हालो। यही ज्योति कल सूरज बन जाएगी। तीसरा प्रश्न : क्या अभिव्यक्ति मात्र मर्यादा नहीं है ? निश्चित ही, अभिव्यक्ति मात्र मर्यादा है। जो प्रगट होता है, उसकी सीमा है; प्रगट होते ही सीमित हो जाता है। जो अप्रगट रह जाता है, वही असीम है। सृष्टि की सीमा है, स्रष्टा की नहीं । कविता की सीमा है, कवि की नहीं । चित्र की सीमा है, फ्रेम है, चित्रकार की नहीं। क्योंकि जो अप्रगट है, वह बहुत है उससे, जो प्रगट हुआ। वह अनंत गुना है उससे, जो प्रगट हुआ । मैंने तुमसे जो कहा, उसकी सीमा है। जो मैं तुमसे कभी न कह पाऊंगा, उसकी कोई सीमा नहीं है। बुद्ध एक जंगल से गुजरते हैं; पतझड़ के दिन हैं, सूखे पत्तों से सारा वन-प्रांत भरा है, हवाएं उन सूखे पत्तों को जगह-जगह उड़ाए फिरती हैं; बड़ा शोरगुल है। आनंद ने पूछा, भगवान! एक बात पूछनी है। आज निजी एकांत मिल गया है, कोई और नहीं है। मैं पूछता हूं, कि आप जो जानते हैं, वह सभी मुझसे कह दिया है ? बुद्ध ने अपनी मुट्ठी में सूखे पत्ते भर लिए और कहा, जो मैंने तुमसे कहा है, वह इस मुट्ठी में बंद पत्तों की भांति है; और जो नहीं कहा, वह इन सारे सूखे पत्तों की भांति है, जिनसे पूरी पृथ्वी भरी है। स्वभावतः, जो कहा जाता है, उसकी सीमा हो जाती है। भाषा सीमा बनाती है। भाषा परिभाषा बनती है। जो नहीं कहा जाता, जो अभिव्यक्त नहीं होता, जो अभिव्यक्ति के पार रह जाता है, वही असीम है। मौन असीम है, मुखरता की सीमा है। इसलिए तो बोलता हूं तुमसे; लेकिन बोलता इसीलिए हूं, ताकि तुम अबोल में जा सको। कहता हूं तुमसे इतना, सिर्फ इसीलिए कि तुम मौन की तलाश कर सको। 152
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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