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________________ अंतश्चक्षु खोल तब चिंता पकड़ती है। यही चिंता या तो पागलपन बन सकती है या बुद्धत्व का जन्म। यह चिंता चौराहा है। इस चिंता से एक राह तो पागलपन की तरफ जाती है; कि तुम इतने घबड़ा जाओ...कि तुम इतने घबड़ा जाओ कि सम्हल न सको; कि तुम टूट जाओ, बिखर जाओ; कि अहंकार के गिरने के कारण, टूटने के कारण, तुम फिर अपने को वापस खड़ा न कर पाओ। बहुत लोग पागल हो जाते हैं। इसलिए सदगुरु का—जिसको बुद्ध ने कल्याण मित्र कहा है-बड़ा अर्थ है। ऐसी घड़ी में, जब तुम गिरने के करीब आ जाओगे, किसी का हाथ चाहिए जो तुम्हें सम्हाल ले। किसी का हाथ चाहिए, जो तुमसे कहे, घबड़ाओ मत; जो था, वह व्यर्थ हुआ, इससे यह मत सोचो कि सभी व्यर्थ है। सार्थक मौजूद है। और यह शुभ घड़ी है, मंगल घड़ी है। शुभाशीष समझो, कृतज्ञ होओ कि परमात्मा ने आधी मंजिल तो पूरी कर दी; दिखा दिया व्यर्थ क्या है! अब एक पर्दा और उठने को है, और सार्थक भी प्रगट हो जाएगा। ___अन्यथा आदमी पागल हो जाता है। बहुत से धार्मिक व्यक्ति पागल हो जाते हैं। बिना कल्याण मित्र के रास्ते पर चलना खतरनाक हो सकता है। तुम पता नहीं सम्हल पाओ, न सम्हल पाओ। और ध्यान रखना, यह शुरुआत है, यह रास्ते का प्रारंभ है-जीवन की व्यर्थता का दिखाई पड़ जाना। यह यात्रा कुछ ऐसी है कि शुरू तो होती है, अंत कभी नहीं होती फिर। जीवन की व्यर्थता दिखाई पड़ती है, इसके बाद उस जीवन का अनुभव होना शुरू होता है, जो परम सार्थक है। लेकिन वह जीवन विस्तीर्ण है, विशाल है; उसका कोई ओर-छोर नहीं। तुम उसमें डूबोगे, खो जाओगे, अंत न पाओगे। तुम उसमें मिटोगे, शून्य हो जाओगे। तुम उसे जानोगे तो, लेकिन पूरा-पूरा कभी न जान पाओगे। जैसे पक्षी क्या पंखों से आकाश की परिभाषा कर सकेगा? उड़ तो लेता है, जान तो लेता है, लेकिन पंख क्या परिभाषा कर सकेंगे आकाश की? . और यह यात्रा अंतहीन है; इसीलिए तो हम परमात्मा को अनंत कहते हैं। संसार की सीमा है, क्योंकि एक न एक दिन व्यर्थ का अनुभव समझ में आ जाता है, उसी दिन सीमा आ जाती है। परमात्मा की कोई सीमा नहीं है; उसकी सार्थकता का कोई अंत नहीं है : सार्थकता-और सार्थकता-और सार्थकता–शिखर पर शिखर खुलते चले जाते हैं। कितनी दिलचस्पो-पुरसुकू है ये रहगुजर, जिसकी इंतिहा ही नहीं अपूर्व है यह रास्ता। अदभुत है यह मार्ग। अनंत आनंदों से भरा है यह मार्ग। बड़ी शांति से, शांति के मेघों से ढंका है यह मार्ग। कितनी दिलचस्पो-पुरसुकू है ये 151
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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