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________________ एस धम्मो सनंतनो गया-उसी दिन खोज शुरू हो जाती है उसकी, जो शाश्वत है : एस धम्मो सनंतनो। उस शाश्वत की तरफ यात्रा शुरू होती है, जब जीवन की क्षणभंगुरता और व्यर्थता दिखाई पड़ती है। शुभ हुआ, घबड़ाना मत; क्योंकि इस घड़ी में घबड़ाहट पकड़ेगी। जब सारा जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है, सब सोच-समझ विक्षिप्तता मालूम होती है, किया-धरा सब मिट्टी हो गया होता है, इतना श्रम किया, इतने भवन बनाए, सब गिर गए होते हैं, तो अचानक एक घबड़ाहट पकड़ती है। उस घबड़ाहट में बहुत से लोग और तेजी से दौड़ने लगते हैं, यह सोचकर कि शायद हम ठीक से दौड़ नहीं रहे हैं। दूसरे तो पहुंच रहे हैं-कोई सिकंदर हो गया, कोई नेपोलियन हो गया-दूसरे तो पहुंच रहे हैं, एक मैं ही नहीं पहुंच पा रहा हूं, जरूर दौड़ की कछ कमी है। तो कुछ तो घबड़ाकर और तेजी से दौड़ने लगते हैं। ऐसी गलती मत करना! क्योंकि तेज दौड़ने से कोई...दौड़ने से कोई संबंध ही नहीं है पहुंचने का। धीमे दौड़ो कि तेज दौड़ो, दौड़ने से कुछ लेना-देना नहीं है पहुंचने का। पहुंच तुम नहीं सकते, क्योंकि पहुंचने की जगह भीतर है। दौड़कर तुम कैसे भीतर पहुंच सकते हो? भीतर तो कोई रुककर पहुंचता है, दौड़कर कैसे पहुंचेगा? सोचकर तुम थोड़े ही भीतर पहुंच सकते हो! सोचना यानी मन का दौड़ना। सोच रुक जाता है तो तुम भीतर पहुंचोगे। सोच का रुक जाना यानी ध्यान। महत्वाकांक्षाओं से तुम कैसे पहुंचोगे? निर्वासना से कोई पहुंचता है। सार की बात इतनी है कि ठहरकर कोई पहुंचता है; तेज दौड़ने का कोई संबंध नहीं है। तेज दौड़कर तुम जल्दी थक जाओगे। तेज दौड़कर कब्र जल्दी करीब आ जाएगी। तेज दौड़कर तुम हजार तरह के रोग इकट्ठे कर लोगे, पहुंचोगे नहीं। घबड़ाना मत; जब अचानक ऐसी समझ आती है कि सब व्यर्थ है, एक झंझावात घेर लेता है, एक आंधी पकड़ लेती है, घबड़ाहट होती है-सब व्यर्थ! अब तक का किया-धरा सब व्यर्थ। अहंकार डांवाडोल हो जाता है। नाव जैसे डूबने लगी! इस नाव को डूब ही जाने देना है। इस नाव के न डूबने के कारण ही तुम्हारा जीवन व्यर्थ हुआ जा रहा है। ___ इसलिए इसको बचाने में मत लग जाना। और बचाने में लगने की आकांक्षा बिलकुल स्वाभाविक है। इस स्वाभाविक आकांक्षा से ऊपर उठना होगा। घबड़ाना मत; अंधेरा घेर लेगा, आंधी घेर लेगी, लेकिन तुम बैठ रह जाना। शब के पहलू में कहीं फूट रही है पो भी कभी दुनिया में अंधेरे न जहांगीर हुए अंधेरा कभी दुनिया में जीत नहीं पाया है। कभी अंधेरा जहांगीर नहीं हुआ है कि सारी दुनिया का मालिक हो गया हो। अंधेरे के भीतर ही सुबह छिपी है और फूटने 148
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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