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________________ अंतश्चक्षु खोल थाल उसके चारों तरफ लगे हैं, फलों के थाल सजे हैं। और जैसे ही एलिस की नजर पड़ी परियों की रानी के ऊपर, परियों की रानी ने इशारा किया कि आ। पास ही मालूम पड़ता है वृक्ष, वह दौड़ी। वह दौड़ती रही...दौड़ती रही...दौड़ती रही, फिर ठिठककर खड़ी हो गई। बड़ी हैरानी मालूम पड़ी, वृक्ष और उसके बीच का फासला कम नहीं होता; उतना ही है। सुबह से दौड़ती है, दोपहर आ गई, सूरज सिर पर आ गया, छाया सिकुड़कर बड़ी छोटी हो गई, भूख और भी बढ़ गई इस दौड़ने से, घटी न; और फासला उतना का उतना है! वह फिर चिल्लाकर पूछती है कि यह मामला क्या है? मैं पागल हो गई हूं या किसी पागल मुल्क में आ गई हूं? यह क्या हो रहा है? ये कैसे नियम हैं? ___ ज्यादा दूर नहीं है रानी, क्योंकि उसकी आवाज उस तक पहुंच जाती है। और रानी कहती है, घबड़ा मत, तू जरा ठीक से नहीं दौड़ रही है। जरा तेजी से दौड़; इतनी ही जरूरत है। . वह तेज दौड़ती है, बहत तेज दौड़ती है, पसीने से लथपथ होकर गिर पड़ती है। सांझ होने के करीब आ गई, सूरज उतरने लगा है; देखती है, फासला उतना का उतना है। थरथरा जाती है, घबड़ा जाती है कि क्या हो रहा है! जैसे एक दुख-स्वप्न देखा हो। वह चिल्लाकर पूछती है, यह मुल्क कैसा है? क्या यहां चलने से रास्ते पार नहीं होते? वह रानी हंसती है; वह कहती है, जहां से तू आती है, उस पृथ्वी पर भी नियम यही है। वहां भी चलने से कोई रास्ते पार नहीं होते। यहां भी नहीं पार होते, वहां भी पार नहीं होते। चलने से कभी कोई रास्ते पार हुए पागल? यह कहानी तो बच्चों की है, लेकिन बूढ़ों के समझने योग्य है। जिस देश में तुम रह रहे हो, यह परियों का देश है। यह झूठा है, जादू से भरा है। कोई तिलिस्म है, कोई अंधापन है। तुम दौड़े चले जाते हो—तुम्हें कभी कुछ मिला? तुम कभी पहुंचे? भूख बढ़ती जाती है, महत्वाकांक्षा बढ़ती जाती है, भिक्षा का पात्र बड़ा होता जाता है, भरता कुछ भी नहीं है। दौड़ते-दौड़ते दोपहर आ जाती है, जवानी आ जाती है, फिर सांझ भी होने लगती है, बुढ़ापा आ जाता है; फिर हाथ-पैर थक जाते हैं, फिर तुम गिर जाते हो जमीन पर कब्र बन गई। पहुंचे कहीं? कोल्हू के बैल जैसा चलना है। ___ अगर यह दिखाई पड़ जाए तो तुम ठिठक जाओगे। तुम कहोगे, बहुत दौड़ लिए, अब दौड़ेंगे न। अब बैठकर सोच लें-उसी को हम ध्यान कहते हैं कि अब बैठकर फिर से पुनर्निरीक्षण कर लें; अब पूरे जीवन का फिर से मनन कर लें; अब पूरे जीवन पर फिर से दृष्टिपात कर लें, फिर से निरीक्षण कर लें कि जो अब तक किया, इसमें कुछ सार है? अगर यह सब असार की तरह खो गया है, रेत पर बनाए गए घरों की तरह गिर गया, पानी पर खींची गई लकीरों की तरह मिट 147
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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