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________________ एस धम्मो सनंतनो शुभ हुआ। अगर इतना भी खयाल में आ जाए कि मैं जो जीवन जीता रहा हूं अब तक, वह व्यर्थ है, तो बड़ी क्रांति घट गई । I और है क्या जानने को ? यही जानना है कि जो मैं जी रहा हूं, वह व्यर्थ है । जैसे ही तुम्हें यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि तुम जो जी रहे हो, वह व्यर्थ है, वैसे ही तुम्हारे पैर ठिठक जाएंगे। यह यात्रा बंद हुई, क्योंकि व्यर्थ को कोई जानकर तो कर नहीं सकता । व्यर्थ भी होता है इसी मान्यता में कि सार्थक है। गलत भी चलता है इसीलिए कि ठीक दिखाई पड़ता है। मालूम तो होता है कि ठीक है । किसी आदमी ने गलत को गलत जानकर कभी नहीं किया । व्यर्थ को व्यर्थ जानकर कोई कभी भटका नहीं। जैसे ही तुम्हें पता चल जाए कि यह रास्ता तो कहीं ले जाता नहीं, फिर भी तुम चलते रहोगे ? तुम तत्क्षण ठहर जाओगे। तुम कहोगे, अब चाहे ठीक रास्ता न भी पता हो, तो इतना तो पता हो गया कि यह गलत है, इस पर न चलें। कम से कम बैठकर विश्राम ही कर लें। जब ठीक मिलेगा तब चल लेंगे; लेकिन गलत पर तो और न चलें। क्योंकि जितने गलत पर चलते जाएंगे, उतना ही पीछे लौटना पड़ेगा । तुम्हारे जीवन में एक ठिठकने की घटना घट जाए, आधी क्रांति हो गई । और समझना इसको : जिसको समझ में आ गया, गलत क्या है, ज्यादा देर न लगेगी उसे समझने में कि ठीक क्या है ! गलत को गलत जानने में भी ठीक की झलक तो आ गई। गलत को गलत पहचानने में सार्थक का मापदंड कहीं तुम्हारे भीतर सक्रिय हो गया। अंधेरे को जिसने अंधेरा जान लिया, उसे प्रकाश से थोड़ी न थोड़ी संगति बैठ गई, एक झलक मिल गई। एक किरण मिली हो भला, पर मिली। बिना एक किरण मिले अंधेरा अंधेरा मालूम न पड़ेगा। शुभ हुआ कि लगा, 'मैं एक व्यर्थ जीवन जी रहा हूं; कोल्हू के बैल की भांति चक्कर लगा रहा हूं।' यही है दशा । वर्तुल में घूमते हैं हम; वहीं-वहीं आ जाते हैं, फिर-फिर वहीं-वहीं आ जाते हैं। कोल्हू के बैल के जैसी ही हमारी दशा है। कोल्हू का बैल चलता तो दिनभर है, पहुंचता कहीं भी नहीं । तुम भी सुबह से शाम तक चलते हो, पहुंचते कहां हो? हाथ में कभी कुछ लगता है? मंजिल कहीं पास आती मालूम पड़ती है ? जन्म के वक्त तुम जहां थे, अभी भी वहीं हो, या कहीं आगे बढ़े ? कैसा मजा चल रहा है ! कैसा तिलिस्म है ! कैसा जादू है ! कैसा भ्रम है कि दौड़ रहे, दौड़ रहे- -पहुंचते कहीं नहीं । बच्चों की किताब है, एलिस इन वंडरलैंड, एलिस परियों के देश में । एलिस जब परियों के देश में पहुंची तो थक गई; बड़ी थक गई इस जमीन से परियों के देश तक आते-आते । भूख भी लगी है, थक भी गई है, प्यास भी लगी है, और उसने पास ही एक बड़े वृक्ष की घनी छाया में परियों की रानी को खड़े देखा। मिष्ठानों के 146
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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