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________________ अंतश्चक्षु खोल जाए, काफी है। तुम्हें मेरे भगवान होने से क्या लेना-देना? इसीलिए तो अंधेरे में पड़ रही है शिकन ___ अगर अंधेरे में जरा सी प्रकाश की सिलवट भी दिखाई पड़ती हो, काफी है। इतने से काम हो जाएगा। तुम उसी को पकड़ लो। तुम इसकी चिंता ही छोड़ो कि मुझसे पूरी पृथ्वी ढंक सकेगी? मैं भगवान हूं या नहीं, मैं सूरज हूं या नहीं हूं, क्या करोगे? अगर जरा सा टिमटिमाता दीया भी तुम्हारे हाथ में पकड़ जाता हो, काफी है। तुम्हारी रात कट जाएगी। तुम्हारी सुबह करीब आ जाएगी। सुना है दो कदम आगे महक रहे हैं चमन । इतना ही अगर तुम्हें मेरे पास सुनाई पड़ जाए-इतना ही सुनाई पड़ जाए कि बगीचे हैं; और उनकी महक तुम्हें आने लगे। इतना ही तुम्हें समझ में आ जाए कि प्रकाश है, जरा सी झलक आ जाए; तो फिर कोई फिक्र नहीं। नुजूम बुझते रहें तीरगी उमड़ती रहे मगर यकीने-सहर है जिन्हें, उदास नहीं - फिर क्या चिंता? तारे बुझते रहें, रात बढ़ती रहे। वस्तुतः जैसे ही रात और गहरी अंधेरी होती है, वैसे ही सुबह करीब आने लगती है। जैसे-जैसे सुबह करीब आती है, रात और गहराने लगती है, अंधेरी होने लगती है। तुम्हारी श्रद्धा बढ़ेगी जैसे-जैसे, वैसे-वैसे तुम्हारी अश्रद्धा भी बढ़ेगी। इसे अगर तुम न समझे तो तुम अकारण बड़े कष्ट में पड़ जाओगे। तुम बड़े रोओगे, जार-जार होओगे। छाती पीटोगे भीतर कि यह क्या हो रहा है? मैं तो श्रद्धा बढ़ाना चाहता हूं, अश्रद्धा भी बढ़ रही है-बढ़ेगी ही। श्रद्धा के साथ अश्रद्धा बढ़ती है। जैसे पहाड़ ऊपर उठता है तो नीचे की खाई बड़ी होती चली जाती है। वृक्ष को आकाश की तरफ जाना हो तो जड़ें पाताल की तरफ जाने लगती हैं। दोनों तरफ एक साथ गति होती है। मन द्वंद्व है। • तुम्हें लेकिन निद्वंद्व की थोड़ी सी झलक मेरे पास मिल जाए, काफी है, तुम फिक्र छोड़ो; भगवान होने न होने से क्या लेना-देना? तुम व्यर्थ की बातों में मत उलझो। जिनको कोई और काम नहीं, उन्हें यह काम करने दो। __ अभी तुम पहचान भी कैसे पाओगे? जब तक तुमने भगवान को भीतर नहीं देखा, तुम बाहर कैसे देख पाओगे? तुम्हारी मजबूरी मेरी समझ में आती है। जब तक तुमने स्वयं को नहीं जाना, तुम मुझे कैसे जान पाओगे? तुम्हारे अंधेपन के प्रति मुझे पूरी-पूरी करुणा है, लेकिन व्यर्थ की उलझनें न बनाओ, वैसे ही जिंदगी बड़ी उलझी हुई है। व्यर्थ के तर्क-जालों में मत पड़ो। इतना ही काफी है कि तुम्हें मेरे पास से भविष्य की थोड़ी सी झलक मिल जाए-इतना ही काफी है। मैं कहता हूं, इतना भी काफी है कि तुम्हें अपने पर संदेह आ जाए। मुझ पर 1६६ह। 143
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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