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________________ प्यासे को पानी की पहचान है। इस आदमी ने तुम्हारे भीतर के सोए तार छेड़ दिए हैं। अपनी होशियारी एक तरफ रख देना है श्रद्धा। अपनी समझदारी एक तरफ रख देना है श्रद्धा। नाखुदा की रविशे-फिक्र ने मारा वरना गर्क होता मैं जहां पर वहीं साहिल होता मांझी की बहुत ज्यादा चिंता ने—कि ठीक-ठीक नाव चले, ठीक-ठीक पतवार चले, ठीक मौसम में चले, ठीक दिशा में चले, किनारे पर पहुंचकर ही रहे-मांझी की अतिशय चिंता ने डुबाया। मांझी यानी तुम्हारा मन; उसी के हाथ में तुमने पतवार दी हुई है, नाव दी हुई है। नाखुदा की रविशे-फिक्र ने मारा वरना ___ गर्क होता मैं जहां पर वहीं साहिल होता जो श्रद्धा में डूबने को तैयार हैं, जहां डूबते हैं, वहीं किनारा पा लेते हैं। संशय में चलने वाले किनारों पर पहुंचकर भी टकराते हैं और डूब जाते हैं। श्रद्धा में डूबने वाले, मझधार में भी डूबते हैं और किनारा पा जाते हैं। श्रद्धा की अल्केमी अलग, उसका शास्त्र अलग। साहस चाहिए। __ जैसे तुम प्रेम में पड़ते हो, एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ जाता है, या एक युवती एक युवक के प्रेम में पड़ जाती है, क्या करते हो तुम प्रेम में? करते कुछ भी नहीं, कोई अनजाना धागा हाथ में आ जाता है। कोई अनजानी चुंबकीय शक्ति खींच लेती है। होश-हवास खो देते हो, सब समझदारी एक तरफ रख देते हो। सारी दुनिया समझाती है कि यह पागलपन है, यह क्या कर रहे हो? कुछ समझ में नहीं आता। एक धुन पकड़ लेती है, एक दीवानापन पकड़ लेता है। श्रद्धा भी प्रेम जैसी है। प्रेम से दो शरीर बंधते हैं, श्रद्धा से दो आत्माएं बंधती हैं। वह श्रद्धा का पागलपन प्रेम के पागलपन से भी बड़ा है। क्योंकि प्रेम का पागलपन तो क्षणिक है; आज है, कल उतर जाए। यह बाढ़ कोई बड़ी स्थिर बाढ़ नहीं; हजार बार चढ़ती-उतरती है। लेकिन श्रद्धा का तो तूफान बड़ा शाश्वत है। एक दफा उठ आता है तो फिर उतरता नहीं; तुम्हें अपने साथ ही ले जाता है। साहस चाहिए। और तुम कह रहे हो, 'जाने कैसे हम तो भटकते हए आपके पास आ पहंचे हैं।' नहीं, भटकते हुए नहीं। तुम्हें चाहे साफ न हो, तुम्हें चाहे स्पष्ट न हो, मुझे स्पष्ट है। अकारण तुम मेरे पास नहीं आ गए हो। अकारण तो कुछ भी नहीं होता। आ गए हो मेरे पास-किसी कारण से; कारण आज जाहिर न हो, कल हो जाएगा। तुम्हें जाहिर न हो, मुझे जाहिर है। यह खोज तुम्हारी चिरंतन से चल रही है। ऐसे ही भटकते हुए नहीं आ गए हो, खोजते हुए आए हो। हां, खोज धुंधली-धुंधली है, साफ नहीं यह माना, लेकिन खोज चल रही है। गलत मार्गों पर भी जो खोजते हैं, वे भी खोजते हैं, टटोलते हैं। ऐसा आदमी ही खोजना कठिन है, जो खोज न रहा हो। वह भी क्या आदमी, जो खोज न रहा हो! 105
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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