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________________ एस धम्मो सनंतनो तुम्हारी चाहत में क्या तुमने महावीर को नहीं चाह लिया? अगर सच में तुमने मेरा स्पर्श अनुभव किया है तो तुमने कृष्ण की बांसुरी सुन ली; तो तुमने मोहम्मद की पगध्वनि सुन ली। क्योंकि मैं वही बोल रहा हूं, जो उन्होंने बोला था । उनकी भाषा उनके युग की थी, मेरी भाषा मेरे युग की है। उनके ढंग उनके युग के थे, मेरा ढंग मेरे युग का है। मैं तुम्हारे पास खड़ा होकर चिल्ला रहा हूं, अगर वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, तो यह मानना असंभव है कि तुम्हें पच्चीस सौ साल पीछे की आवाज पहचान आ जाएगी। में 'पुराने शास्ता को हम परंपरा से जानते हैं, जो कि बहुत आसान है... ।' जानना आसान नहीं है, मान लेना कि जानते हैं, आसान है। .. जीवित शास्ता को पहचानने के लिए काफी विकसित प्रज्ञा चाहिए । ' नहीं, जीवित शास्ता को पहचानने के लिए विकसित प्रज्ञा नहीं चाहिए । प्रज्ञा तो विकसित होगी पहचानने के बाद। अगर उसको पहले शर्त बना लोगे तब तो असंभव हो जाएगा। फिर क्या चाहिए? साहस चाहिए, प्रज्ञा नहीं । हिम्मत चाहिए। अंधेरे में, अनजान में उतरने का साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए। अगर तुम्हारे पास विकसित प्रज्ञा हो तब तुम शास्ता को पहचान पाओ, तो फिर शास्ता की जरूरत ही क्या रह जाएगी ? तुम्हारी विकसित प्रज्ञा ही काफी है; वही तुम्हारी शास्ता हो जाएगी। नहीं, विकसित प्रज्ञा तो होगी, जब तुम किसी सदगुरु को पहचान लोगे; जब तुम किसी को मौका दोगे और किसी के हाथों को अपने भीतर आने दोगे; और किसी को अवसर दोगे कि उसकी अंगुलियां तुम्हारी बीन को छेड़ दें; तब तुम्हारी प्रज्ञा की ज्योति जगेगी। जब तुम किसी को मौका दोगे कि तुम्हारी बुझती ज्योति को उकसा दे; जब तुम किसी पर इतना भरोसा करोगे कि कहोगे कि आ जाओ भीतर, मुझे भरोसा है। श्रद्धा चाहिए, विकसित प्रज्ञा नहीं । और श्रद्धा से बड़ा कोई साहस नहीं है। श्रद्धा बड़ी अनूठी घटना है। श्रद्धा का अर्थ है : हमें पता नहीं है कहां यह आदमी ले जाएगा। पता नहीं मार्गदर्शक है कि लुटेरा है; पता नहीं स्वर्ग की राह पर चला है कि नर्क की राह पर चला है। हजार संदेह उठेंगे, हजार मन डांवाडोल होगा, विचार न मालूम कितनी बातें उठाएंगे। श्रद्धा का अर्थ हैः यह सब होता रहे, इस सब के बावजूद भी जाना है। किसी पुकार ने पकड़ लिया है, कोई चुनौती आ गई है, जाना है। अगर भटकाएगा भटकेंगे। अगर अंधेरे में उतार देगा तो उतरेंगे। लेकिन इस आदमी ने तुम्हारे भीतर कुछ छू लिया है, इसके साथ जाना ही होगा। एक अनिर्वचनीय आकर्षण पैदा हुआ 104
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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