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एस धम्मो सनंतनो
चली गई हों, तुम बैठे उसी घर में रहे हो। सपने कितने ही दूर तुम्हें ले गए हों, पर यात्रा सपनों की है। जब जागोगे, अपने घर में अपने को पाओगे।
परमात्मा के लिए दौड़ना नहीं पड़ता, रुकना पड़ता है। परमात्मा को दौड़कर हम खो रहे हैं।
अब इसे ऐसा कहेंः संसार को दौड़-दौड़कर भी पाना मुश्किल है। परमात्मा को पाने का एक ही उपाय है : रुक जाना। जो दौड़-दौड़कर भी नहीं मिलता, वही संसार है; जो बिना दौड़े मिल जाता है, वही परमात्मा है। नाम अलग-अलग होंगे।
गीता कहती है : स्थितप्रज्ञ; जहां प्रज्ञा ठहर जाती है, जहां चित्त डांवाडोल नहीं होता।
'भीतर कुछ स्थगित हो गया है।'
हो जाने दो। सहारा दो। जल्दी में कहीं उसे बिगाड़ मत देना; कहीं हिलाने मत लग जाना। क्योंकि मन पुरानी आदतों से बड़ा परेशान और पीड़ित है। नए को मन पहचान ही नहीं पाता। और जब मन ठहरता है तो बड़ी घबड़ाहट होती है, जी बड़ा घबड़ाता है। क्योंकि बड़ी बेचैनी लगती है-यह क्या हो गया? सदा चलता हुआ राग, सदा चलते हुए विचार, सदा चलते हुए पहिए एकदम से रुक गए! और डर यह लगता है कि चल-चलकर न पहुंच पाए, अब तो रुके जा रहे हैं, तो कैसे पहुंचेंगे? तो बड़ी घबड़ाहट होती है। __तो कहीं ऐसा न हो कि उस घबड़ाहट में तुम जो मन रुक रहा था, उसे फिर चला दो। बहुत बार ऐसी भूल होती है। जब ध्यान सधने लगता है। उन लोगों का भी, जो ध्यान करने के लिए बड़े आतुर थे-तो घबड़ाहट पकड़ती है। मन को चलाने की इच्छा हो जाती है। कुछ भी चला दो! __ क्योंकि जब ध्यान सधने लगता है और शून्यता उतरने लगती है तो ऐसा लगता है, मरे! अब मरे! मृत्यु हुई! क्योंकि तुमने मन के साथ अपने को एक जाना है। उसके पार तो तुम्हारा अपना कोई अनुभव नहीं। जब मन ठहरता है, लगता है, हम भी गए। यह तो महंगा पड़ गया। तुम तो सोचते थे, हम बचेंगे-सुंदर होकर, सत्यतर होकर, शुभ होकर। हम बचेंगे, शाश्वत होकर। यह तो उलटा हो गया। बीमारी को मिटाने गए थे, यह तो बीमार मिटने लगा। यह तो औषधि थोड़ा ज्यादा काम कर गई। घबड़ाहट पकड़ेगी।
उसी समय सदगुरु के साथ की जरूरत है। सदगुरु के साथ की जरूरत दो जगह बड़ी गहरी है : पहली, तुम्हें रास्ते पर चला दे; और दूसरी, जब मंजिल करीब आने लगे, तब तुम्हें भागने न दे। नहीं तो तुम पीछे लौट जाना चाहोगे। तुम कहोगे, छोड़ो! यह तो ज्यादा हो गया। मरने को हम न आए थे।
ध्यान मृत्यु है। विचार ठहरते हैं, मौत आती मालूम पड़ेगी। मौत को अंगीकार करना सीखना होगा। जिसने मौत को स्वीकार कर लिया, वह अमृत हो गया।
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