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________________ एस धम्मो सनंतनो की निर्मल आंखों से झांका ? किसने तुम्हें देखा? तुम कहते हो, हमारा बेटा है। परिचय भ्रम की देह अपरिचय सहज चिरंतन जो जानते हैं, वे जानते हैं कि परिचय सब धोखा है। कौन किसको जानता है? जिन्हें तुम अपने कहते हो, उन्हें भी तुम कहां जानते हो? छोड़ो उनकी बात! तुम अपने को कहां जानते हो? परिचय भ्रम की देह अपरिचय सहज चिरंतन सत्य की अगर सच में ही खोज करनी हो तो परिचय की जितनी सीमाएं हैं, तोड़ो; फिर-फिर झांककर देखो। परिचय को घना मत होने दो। परिचय को जड़ मत जमाने दो। परिचय की धूल को मत जमने दो। फिर-फिर स्नान कर लो, फिर-फिर अपरिचित हो जाओ; ताकि जीवन ताजा रहे, नया रहे सुबह की भांति; सुबह की ओस की भांति स्वच्छ रहे। और तब तुम सब जगह से पाओगे, वही झांक रहा है। तुम्हारी पत्नी से भी वही; तुम्हारे बेटे से भी वही। किसी दिन दर्पण के सामने खड़े होकर अचानक तुम पाओगे दर्पण में तुम्हारी छबि नहीं बन रही, उसी की बन रही है-तुमसे भी वही। 'क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?' अब तुम्हीं उत्तर खोज लेना। 'क्या आप एक सदगुरु हैं?' होश भी नहीं तुम्हें, क्या पूछ रहे हो! इतना ही पूछो, क्या तुम सदशिष्य हो? अगर हो तो मेरे उत्तर की जरूरत न रहेगी। यह तो ऐसे है, जैसे अंधा आदमी पूछता हो, क्या सूरज निकला है? अगर सूरज कहे भी कि निकला हूं तो भी क्या फर्क पड़ेगा! अंधा आदमी पूछेगा, सच कह रहे हो? सूरज अगर कहे, सच भी कह रहा हूं; तो अंधा आदमी पूछेगा, कोई प्रमाण है? अंधे आदमी ने बुनियादी बात ही न पूछी। पूछना था कि मैं अंधा तो नहीं हूं! मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा। प्रश्न को सदा अपनी तरफ मोड़ो, क्योंकि खोज अपनी करनी है। मेरे सदगुरु होने न होने से तुम्हें क्या लेना-देना है? इसे तुम अपनी चिंता क्यों बनाते हो? और अगर मुझसे ही पूछ रहे हो तो हल कैसे होगा? अगर मैं कह दूं हां, तो क्या फर्क पड़ेगा? तुम्हारे मन में दूसरा सवाल उठेगा कि मैंने जो कहा, वह ठीक है, सही है? संदेह तो अपनी जगह बना रहेगा। अगर मैं दो-चार गवाहियां भी जुटा दूं कि ये रहे लोग, जो कहते हैं; तो संदेह यह उठेगा, ये गवाह कहीं सिखाए-पढ़ाए तो नहीं! ___ असली बात देखने की कोशिश करो। तुम्हारे भीतर संदेह है, श्रद्धा नहीं है। और संदेह से न तो सदगुरु से संबंध हो सकता है, न सत्य से संबंध हो सकता है।
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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