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सत्संग-सौरभ संवेदनशील होने से। और अपने को कठोर मत कर लेना, अकड़ा मत लेना, क्योंकि उसी अकड़ने में असुरक्षा है। मरने लगे तुम। मरने में नहीं सुरक्षा हो सकती। ज्यादा जीवंत होने में सुरक्षा है।
सदगुरु के पास आ जाना इंकलाब है, एक क्रांति है।
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
अचानक, तुम अब तक जो समझते थे ठीक, वह गलत हो जाता है। अचानक, अब तक तुम जिसे समझते थे राह, वह गुमराह हो जाती है। अचानक, अब तक तुम जिसे जीवन समझते थे, उस पर सब पकड़ छूट जाती है।
दिल भी गुलाम दिल की तमन्नाएं भी गुलाम यूं जिंदगी हुई भी तो क्या जिंदगी हुई
एक सदगुरु को देखकर पहली दफा यह खयाल आता है। एक मालिक को देखकर पहली दफा खयाल आता है कि तुम गुलामी में जीए।
डायोजनीज को पकड़ लिया था कुछ डाकुओं ने, और उसे बेचने बाजार में ले तब तो दुनिया में गुलाम होते थे और गुलाम बेचे जाते थे। डायोजनीज को तख्ती पर खड़ा किया गया, बोली लगाए जाने के लिए। बड़ा शानदार आदमी था । नग्न ! उसकी शान देखे बनती थी। वहां बड़े धनपति आए थे, गुलामों को खरीदने । लेकिन उन धनपतियों में किसी के भी चेहरे पर यह शान न थी, यह गरिमा न थी । लोग झें- झेंपे से मालूम हो रहे थे इस गुलाम को देखकर ।
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और जैसे ही बोली लगाने वाला बोली लगाने को था, डायोजनीज ने चारों तरफ नजर डाली। वह उस तख्त पर ऐसे खड़ा था, जैसे कि सम्राट हो । और उसने कहा, ठहरो! यह जो सामने आदमी खड़ा है, कौन है। उस बोली लगाने वाले ने कहा कि यह इस नगर का सबसे बड़ा धनपति है। डायोजनीज ने कहा कि इस गुलाम को इस मालिक की जरूरत है। मुझे इसी के हाथ बेच डालो। इस गुलाम को मुझ मालिक की जरूरत है।
दिल भी गुलाम दिल की तमन्नाएं भी गुलाम यूं जिंदगी हुई भी तो क्या जिंदगी हुई
पहली दफा तुम्हारा सब झनझनाकर टूट जाता है। जैसे दर्पण गिर पड़े पृथ्वी पर और खंड-खंड हो जाए, चकनाचूर हो जाए।
सदगुरु से मिलन एक सौभाग्यपूर्ण दुर्घटना है। उसके बाद फिर तुम वही न हो सकोगे। फिर तुम लाख बटोरो उन टुकड़ों को, टूटे हुए शीशे के टुकड़ों को, फिर तुम अपनी तस्वीर दुबारा जमा न पाओगे। अब तो तुम्हें नया होना ही पड़ेगा। लेकिन यह उन्हीं के लिए हो पाता है, जो संवेदनशील हैं। वे ही शिष्यत्व को उपलब्ध होते हैं। 'दुर्बुद्धि मूढ़ जन अपना शत्रु आप होकर, पापकर्म करते हुए विचरण करते हैं, जिसका फल कडुवा होता है । '
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