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________________ सत्संग-सौरभ है, वह तो झुकने से ही उनकी परख आती है। तो पहले झुकना सीखकर आ। ___एक दूसरी दुनिया है सत्संग की। और बाहर से तुम जाकर देखोगे, एक सदगुरु के पास किसी को सत्संग करते, तुम्हें कुछ भी समझ में न आएगा। क्योंकि यह भाषा और है। यह कंकड़-पत्थरों का मामला ही नहीं है। तुम सब्जी मंडी में रहते हो; या बहुत हुआ तो सोने-चांदी की दुकान चलाते हो। लेकिन यह किन्हीं और ही लोक की बातें हैं। और इनके लिए इतना झुक जाना जरूरी है कि करीब-करीब मिट ही जाओ। __इसलिए जीसस ने कहा है, जो मिट जाएंगे, वे बच जाते हैं। और जो बचाएंगे अपने को, मिट जाते हैं। ____ बचाना अपने को मूढ़ता है। फिर तुम कलछी हो जाते हो। तुम जिस दुनिया में जीते हो, उस दुनिया को तुमने अपना घर समझा है। सदगुरु कहते हैं, सराय है। यह दुनिया इक सरा है इसको आखिर छोड़ जाना है अगर दो-चार दिन आकर यहां ठहरे तो क्या ठहरे ___ लेकिन तुम्हारा सारा जीवन-दृष्टिकोण, तुम्हारे देखने का ढंग, इस दुनिया को सब कुछ मानकर चलता है। जन्म और मौत के बीच तुम्हारा सब कुछ है। सदगुरु का जन्म के पहले और मृत्यु के बाद सब कुछ है। तुम्हारा सब कुछ जन्म और मृत्यु के बीच में है। यह जो थोड़ी सी सरायें हैं, जहां दो दिन ठहरे तो क्या ठहरे, यहीं तुम्हारा सब कुछ है। सराय की भाषा ही तुम्हारी एकमात्र भाषा है। शाश्वत की तुम्हें कोई अनुभूति नहीं। और सदगुरु बात करता है तुम्हारी उस समय की, जब तुम पैदा भी न हुए थे। और बात करता है तुम्हारी तब, जब मौत घट जाएगी और फिर भी तुम होओगे; सनातन की, शाश्वत धर्म की, अमृत की। तुम मृत्यु में डूबे खड़े हो। मृत्यु से तुम्हारी एकमात्र पहचान है। जीवन को तो तुम जानते ही नहीं, तो तुम सदगुरु को कैसे जानोगे, जो महाजीवन है? तो तुम कलछी की भांति पड़े रह जाओग्ने। - 'मूढ़ यदि जीवनभर भी सदगुरु के साथ रहे तो भी धर्म को वैसे ही नहीं जान पाता, जैसे कलछी दाल के रस को नहीं जानती है।' सदगुरु में मृत्यु भी है, अमृत भी। मृत्यु, क्योंकि तुम जैसी ही देह भी वहां है। और अमृत भी, क्योंकि तुम्हें जिस आत्मा का पता नहीं, वह आत्मा वहां अभिव्यक्त हुई है अपने हजार-हजार रंगों में। उस आत्मा का इंद्रधनुष अनंत के छोरों को छू रहा है। तुम जैसा भी है सदगुरु, तुम से भिन्न भी। इक जाम में घोली है बेहोशी-ओ-होशियारी सर के लिए गफलत है दिल के लिए बेदारी अगर तुमने सिर से ही समझने की कोशिश की, तो तुम सदगुरु के पास से और भी मूर्छित होकर लौटोगे। 57
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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