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एस धम्मो सनंतनो
भोगने के दिनों में भंगार पर अनूठा शास्त्र लिखा, श्रृंगार-शतक। कोई मुकाबला नहीं। बहुत लोगों ने शृंगार की बातें लिखी हैं, पर भर्तृहरि जैसा स्वाद किसी ने शृंगार का कभी लिया ही नहीं। भोग के अनुभव से श्रृंगार के शास्त्र का जन्म हुआ। यह कोई कोरे विचारक की बकवास न थी, एक अनुभोक्ता की अनुभव-सिद्ध वाणी थी। शृंगार-शतक बहुमूल्य है। संसार का सब सार उसमें है।
लेकिन फिर आखिर में पाया, वह भी व्यर्थ हुआ। छोड़कर जंगल चले गए। फिर वैराग्य-शतक लिखा, फिर वैराग्य का शास्त्र लिखा। उसका भी कोई मुकाबला नहीं है। भोग को जाना तो भोग की पूरी बात की, फिर वैराग्य को जाना तो वैराग्य की पूरी बात की। ___जंगल में एक दिन बैठे हैं। अचानक आवाज आई। दो घुड़सवार भागते हुए चले आ रहे हैं दोनों दिशाओं से। चट्टान पर बैठे हैं, छोटी सी पगडंडी है। घोड़ों की आवाज से आंख खुल गई। आंख बंद किए बैठे थे। आंख खुली तो सूरज की रोशनी में सामने ही पड़ा एक बहुमूल्य हीरा देखा। बहुत हीरे देखे थे, बहुत हीरों के मालिक रहे थे, पर ऐसा हीरा खुद भी नहीं देखा था। एक क्षण में छलांग लग गई। एक क्षण में मन ने वासना जगा ली। एक क्षण में मन भूल गया वैराग्य। एक क्षण में मन भूल गया वे सारे अनुभव विषाद के। वह सारा अनुभव भोग का। वह तिक्तता, वह कडुवाहट, वह तल्खी जो मन में छूट गई थी भोग से! सब भूल गया। एक क्षण में वासना उठ गई। एक क्षण को ऐसा लगा कि उठे-उठे-और उसी क्षण खयाल भी आ गया, अरे पागल! सब छोड़कर आया, व्यर्थता जानकर आया, फिर भी कुछ शेष बचा मालूम पड़ता है। अभी भी उठाने का मन है ?
बैठ गए। किसी को भी पता न चला। कानों-कान खबर न हुई। यह तो भीतर की बात थी। कोई बाहर से देखता भी होता तो पता न चलता। क्योंकि यह तो भीतर ही वासना उठी, भीतर ही बैठ गई। संसार उठा और गया। एक क्रांति घट गई। एक इंकलाब हो गया।
और तभी वे दोनों घुड़सवार आकर खड़े हो गए। दोनों ने अपनी तलवारें हीरे के पास रोक दी। और दोनों ने कहा, पहले मेरी नजर पड़ी है। कोई निर्णय तो हो न सकता था। तलवारें खिंच गयीं। क्षणभर में दो लाशें पड़ी थीं-तड़फती! लहूलुहान! हीरा अपनी जगह पड़ा था। सूरज की किरणें अब भी चमकती थीं। हीरे को तो पता भी न चला होगा कि क्या-क्या हो गया! ___ सब कुछ हो गया वहां। एक आदमी का संसार उठा और वैराग्य हो गया। एक आदमी का संसार उठा और मौत हो गई। दो आदमी अभी-अभी जीवित थे, अभी-अभी श्वास चलती थी, खो गई। प्राण गंवा दिए पत्थर पर। और एक आदमी वहीं बैठा जीवन के सारे अनुभवों से गुजर गया-भोग के और वैराग्य के और सबके पार हो गया, साक्षीभाव जग गया।
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