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एस धम्मो सनंतनो
बराबर सुख-दुख का अनुपात पाते हैं। आखिरी हिसाब में बड़े मजे की बात है, कोई फर्क नहीं रह जाता। मौत बड़ी साम्यवादी है, कम्युनिस्ट है, बराबर कर जाती है। तुमने कितने ही बड़े काम किए, या कुछ भी नहीं किया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आलसी और कर्मठ, अमीर और गरीब, सफल और असफल, मेधावी और मूढ़-सब को मौत बराबर कर जाती है। मरते वक्त अचानक पता चलता है कि सब हिसाब-किताब बराबर हो गया। पचास-पचास प्रतिशत की बात है।
हाट मिट्टी ने लगाकर सांस की रात दिन बेचा खरीदा प्राण को उम्रभर की यह मगर सौदागिरी बस कफन ही दे सकी इन्सान को हाट मिट्टी ने लगाकर सांस की रात दिन बेचा खरीदा प्राण को उम्रभर की यह मगर सौदागिरी
बस कफन ही दे सकी इन्सान को अंत में सम्राट हो कि फकीर, जमीन में बराबर जगह मिल जाती है। मिट्टी दोनों को आत्मसात कर लेती है। सारी जिंदगी की दौड़-धूप व्यर्थ मालूम होती है। यह ढंग कमाई का नहीं मालूम होता।
फिर फर्क क्या कभी भी होता है या नहीं?
फर्क होता है। कोई बुद्ध पुरुष मरता है तो फर्क होता है। उसने जिंदगी में हानि-लाभ बराबर-बराबर हैं यह मानकर, यह जानकर, यह पहचानकर, हानि-लाभ की चिंता ही छोड़ दी। उसने यह सौदागिरी बंद ही कर दी। इसके लिए वह मौत तक न रुका कि मौत इसे बंद करे। मौत के आने के पहले उसने द्वार-दरवाजे बंदकर दिए इस सौदागिरी के। उसने पहले ही समझ लिया कि यह तो सब बराबर हो जाना है, इसमें दौड़ना व्यर्थ है। उसने नजर भीतर की तरफ फेर ली। उसने पलकें बंद कर ली।
उसने उसकी तलाश करनी शुरू कर दी, जो वह है। न लाभ, न हानि, क्योंकि लाभ-हानि दोनों बाहर हैं। लाभ भी बाहर होता है, हानि भी बाहर होती है। धन भी बाहर है, निर्धनता भी बाहर है। इसलिए उसने अपनी तलाश करनी शरू कर दी कि मैं कौन हं जिसको लाभ होता है, हानि होती है? मैं कौन हूं जो सफल होता है, असफल होता है? मैं कौन हूं जो कभी सुखी होता, कभी दुखी होता? अब सुख-दुख का हिसाब छोड़ दिया; उसने उसकी फिक्र लेनी शुरू कर दी, जो मैं हूं।
इसके पहले कि मौत आए, स्वयं को पहचान लेना जरूरी है। जिन्होंने मौत के पहले स्वयं को पहचान लिया, उनकी मौत फिर आती ही नहीं। मौत तो आती उसी की है, जिसने अपने को नहीं पहचाना। मौत सिर्फ अज्ञानी की होती है, बुद्ध पुरुषों की कोई मौत नहीं होती।
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